आचार्य अत्रे के बाद पत्रकारों पर महाराष्ट्र के हित रक्षा की बड़ी जिम्मेदारी!-
वरिष्ठ पत्रकार मधुकर भावे
अश्विनीकुमार मिश्र
मुंबई,@nirbhaypathik:: संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन में किसानों और मजदूरों ने लड़ाई लड़ी, उस लड़ाई में उन्होंने अपना खून बहाया. महाराष्ट्र तो जीत लिया, लेकिन आज किसान और मजदूर अपने हक़ के लिए दर दर भटक रहे हैं। हालत यह है कि अखबार में भी आम आदमी के सवाल पर चर्चा नहीं होती. इस स्थिति को पत्रकार ही बदल सकते हैं। आचार्य अत्रे साहेब के जाने के बाद भी किसी भी पार्टी के नेता स्थिति में सुधार नहीं ला सके. ऐसे में महाराष्ट्र के कल्याण के लिए हम पत्रकारों पर जिम्मेदारी दस गुना नहीं बल्कि सौ गुना बढ़ गई है।यह भावपूर्ण विचार वरिष्ठ पत्रकार मधुकर भावे ने व्यक्त किए। वह मुंबई मराठी पत्रकार संघ में आचार्य अत्रे की 125वीं जयंती पर आयोजित व्याख्यान के अवसर पर बोल रहे थे। इस अवसर पर पत्रकार संघ के अध्यक्ष नरेंद्र वि. वाबळे ने शॉल, फल, गुलदस्ता और उपहार देकर मधुकर भावे का स्वागत किया। इस अवसर पर वरिष्ठ पत्रकार विजय वैद्य उपस्थित थे। आचार्य अत्रे की 125वीं जयंती के अवसर पर मधुकर भावे 125 व्याख्यान देंगे और इस पहले व्याख्यान से व्याख्यायनों की श्रृंखला का शुभारंभ मुंबई मराठी पत्रकार संघ द्वारा किया गया।
भावे ने आगे कहा कि अखबार में आम आदमी के मुद्दे पर चर्चा नहीं हो रही है. आज की पत्रकारिता में यह जिम्मेदारी है कि पत्रकार जो भी शब्द लिखें उसे इस बात का ध्यान रखकर प्रस्तुत करना चाहिए कि वह समाज के लिए उपयोगी है या नहीं।आज हमने विश्वसनीयता खो दी है. खोई हुई विश्वसनीयता को प्राप्त करना ही आचार्य अत्रे जो सच्ची श्रद्धांजलि होगी.
मधुकर भावे ने अपने भाषण में अत्रे साहब के विभिन्न पहलुओं को उजागर किया। श्री अत्रे एक लेखक, कवि, व्यंग्यकार, फिल्म कहानीकार, नाटककार, निर्देशक, उत्कृष्ट वक्ता , शिक्षक, राजनीतिक नेता, व संपादक थे । वह हास्य कवि नहीं,बल्कि महान विद्वान थे। मैंने उनसे एक शब्द की ताकत सीखी।’ किसी भी बात का सार एक शब्द में कहने का हुनर उनमें था। उन्होंने इस बात पर भी अफसोस जताया कि डिजिटल युग में साहित्य को भुला दिया जा रहा है।1954 में फिल्म श्यामची ऐ को राष्ट्रपति से स्वर्ण पदक मिला। उस समय पुरस्कार के लिए 70 नामांकन थे। उस समय सात परीक्षक थे लेकिन कोई मराठी परीक्षक नहीं था, फिर भी फील श्यामची आई को प्रथम पुरस्कार मिला। जब अत्रे की फिल्म महात्मा फुले ने रजत पदक जीता तब समारोह में डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर और माई साहब उपस्थित थे। आचार्य अत्रे 58 वर्ष की आयु में संपादक बने। उन्होंने साधारण लोगों को पाला।उन्हें अग्रलेखों का बादशाह कहा जाता था । उनके लेखन का जवाब नहीं था. भावे ने यह भी याद किया कि लाल बहादुर शास्त्री के निधन पर अत्रे साहब ने मुझे मराठी में प्रस्तावना लिखने का अवसर दिया था।