सिद्ध हो मानवाधिकार दिवस की सार्थकता
रमेश सर्राफ धमोरा
कुछ अधिकार ऐसे होते है जो व्यक्ति को जन्मजात मिलते है। उन अधिकारों का व्यक्ति के आयु, प्रजातीय मूल, निवास-स्थान, भाषा, धर्म पर कोई असर नहीं पड़ता। इतिहास गवाह है की भारत ने कभी भी संस्कृति, धर्म या अन्य कारकों के आधार पर दूसरों को अपने अधीन करने की कोशिश नहीं की है। भारत एक ऐसा देश है जिसके मूल में मानवाधिकार की अवधारणा है। भारत के लोग मानवाधिकारों का सम्मान करते हैं और उनकी रक्षा करने का संकल्प भी लेते हैं। भारत विश्व स्तर पर आज भी मानवाधिकार का समर्थन करता रहा है।
मानव अधिकार वे मूल अधिकार हैं, जो इस धरती पर प्रत्येक व्यक्ति के पास हैं। मानवाधिकार मौलिक अधिकार और स्वतंत्रता हैं। मानवाधिकारों में जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार, गुलामी और यातना से मुक्ति, राय और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, काम और शिक्षा का अधिकार और बहुत कुछ शामिल हैं। बिना किसी भेदभाव के हर कोई इन अधिकारों का हकदार है। भारत का स्वतंत्रता आंदोलन मानवाधिकारों के लिए प्रेरणा का एक बड़ा स्रोत रहा है। मानवाधिकार दिवस की नींव विश्व युद्ध की विभीषिका से झुलस रहे लोगों के दर्द को
समझ कर और उसको महसूस कर रखी गई थी किसी भी इंसान की जिन्दगी, आजादी, बराबरी और सम्मान के अधिकार का नाम ही मानवाधिकार है .भारतीय संविधान इन अधिकारों की न सिर्फ गारंटी देता है, बल्कि इसे तोडने वाले को अदालत सजा भी देती है।
संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 10 दिसम्बर 1948 को विश्व मानवाधिकार घोषणा पत्र जारी कर प्रथम बार मानवाधिकार व मानव की बुनियादी मुक्ति पर घोषणा की थी। वर्ष 1950 में संयुक्त राष्ट्र ने हर वर्ष की 10 दिसम्बर को विश्व मानवाधिकार दिवस मनाना तय किया था। 70 वर्ष पहले पारित हुआ विश्व मानवाधिकार घोषणा पत्र एक मील का पत्थर हैं। जिसने समृद्धि, प्रतिष्ठा व शांतिपूर्ण सह अस्तित्व के प्रति मानव की आकांक्षा प्रतिबिंबित की है। आज यही घोषणा पत्र संयुक्त राष्ट्र संघ का एक बुनियादी भाग है।
कहने में मानवाधिकार शब्द बहुत बड़ा है। क्योंकि मानवाधिकारो से हर व्यक्ति का हित जुड़ा होता है। आज के दौर में कोई भी मानव को उनके वास्तविक अधिकार नहीं देना चाहता है।राजनेता मानव अधिकार की बात तो जोरशोर से करते हैं। मगर जब अधिकार देने की बारी आती है तो पीछे खिसकने लगते हैं। राज नेताओं को पता है कि यदि लोगों को उनके अधिकार मिल गये तो तो उनकी नेतागिरी बंद हो जायेगी। हमारे देश के संविधान में मानव को बहुत सारे अधिकार दिये गये हैं। मगर उन पर अमल नहीं हो पाता है मानव अधिकारों की रक्षा के लिये बनाये गये कानून महज कागजों में सिमट कर रह जाते हैं।
भारत में 28 सितम्बर,1993 से मानव अधिकार कानून अमल में आया12 अक्टूबर,1993 में सरकार ने राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग का गठन किया.आयोग के कार्यक्षेत्र में नागरिक और राजनीतिक के साथ आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकार भी आते हैं। जैसे बाल मजदूरी, स्वास्थ्य, भोजन, बाल विवाह, महिला अधिकार, हिरासत और मुठभेड़ में होने वाली मौत, अल्पसंख्यकों और अनुसूचित जाति और जनजाति के अधिकार.पूरे विश्व में इस बात को अनुभव किया गया है और इसीलिए मानवीय मूल्यों की अवहेलना होने
पर वे सक्रिय हो जाते हैं। इसके लिए हमारे संविधान में भी उल्लेख किया गया हैसंविधान के अनुच्छेद 14,15,16,17,19,20,21,23,24,39,43,45 देश में मानवाधिकारों की रक्षा करने के सुनिश्चित हैं।
इस दुनिया में जो भी मानव जन्म लेता है उसके साथ उसके कुछ अधिकार भी वजूद में आते हैंकुछ अधिकार हमें परिवार देता है तो कुछ समाज, कुछ अधिकार हमारा मुल्क देता है, तो कुछ दुनिया लेकिन आज भी दुनिया में बहुत से लोग ऐसे हैं जो या तो अपने अधिकारों से अंजान है या उनके अधिकारों का हनन किया जा रहा है। कभी जाति के नाम पर तो कभी धर्म के नाम पर, कभी लिंग भेदभाव के जरिए तो कभी रंग भेद नीति को अपनाकर लोगों के इन अधिकारों को कुचला जा रहा है। हर तबके, हर शहर और दुनिया के कोने कोने में किसी न किसी वजह से लोगों को बराबरी के हक से महरूम रखने का सिलसिला बदस्तूर जारी है। इतिहास गवाह है कि दुनिया में हुई बड़ी से बड़ी क्रांति के पीछे अधिकारों का हनन ही अहम वजह रही है हमेशा ही अपने अधिकारों के लिए इंसान को लंबी जंग लडनी पड़ी है दुनिया में तमाम जगह लोगों ने अपन हक की लड़ाई में लाखों कुर्बानियां दी हैं और आज भी बहुत से लोग अपने अधिकारों की जंग लड़ रहे हैंदेश के विशाल आकार व विविधता तथा सम्प्रभुता सम्पन्न धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणतंत्र के रूप में इसकी प्रतिष्ठा, तथा एक भूतपूर्व औपनिवेशिक राष्ट्र के रूप में इसके इतिहास के परिणामस्वरूप भारत में मानवाधिकारों की परिस्थिति एक प्रकार से जटिल हो गई है। भारत का संविधान मौलिक अधिकार प्रदान करता है, जिसमें धर्म की स्वतंत्रता भी अंतर्भूक्त है संविधान की धाराओं में बोलने की आजादी के साथसाथ कार्यपालिका और न्यायपालिका का विभाजन तथा देश के अन्दर एवं बाहर आने-जाने की भी आजादी दी गई है। भारतीय परिदृश्य में यह समझ पाना थोड़ा कठिन है.