वर्तमान चुनौतियों से निपटने के लिए मजबूत औद्योगिक नीति की जरूरत
-प्रियंका सौरभ
आर्थिक सत्ता के केन्द्रीयकरण को रोकने के लिए, असमानता घटाने के लिए, बेरोजगारी की समस्या को हल करने के लिए, विदेशों पर निर्भरता समाप्त करने के लिए तथा देश को आर्थिक सुरक्षा को मजबूत बनाने के लिए एक उपयुक्त एवं स्पष्ट औद्योगिक नीति की आवश्यकता होती है।औद्योगिक नीति को आर्थिक परिवर्तन को प्रोत्साहित करने के लिए राज्य द्वारा रणनीतिक प्रयास के रूप में परिभाषित किया गया है, अर्थात क्षेत्रों के बीच या भीतर निम्न से उच्च उत्पादकता गतिविधियों में बदलाव। भारत का लक्ष्य 2025-26 तक अपने सकल विनिर्माण मूल्य को लगभग 3 गुना बढ़ाकर 1 ट्रिलियन डॉलर तक पहुंचाना है। वैश्विक अर्थव्यवस्था में विनिर्माण प्रतिस्पर्धा को बढ़ाने के लिए उच्च प्रौद्योगिकी आधारित बुनियादी ढांचा और कुशल जनशक्ति महत्वपूर्ण हैं।
भारत जैसे विकासशील राष्ट्र के लिए औद्योगिक नीति बहुत प्रकार से महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि यहाँ नियोजित अर्थव्यवस्था के माध्यम से औद्योगिक विकास हो रहा है। देश में प्राकृतिक संसाधन पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हैं लेकिन उनका उचित विदोहन नहीं हो रहा है। यहाँ प्रति व्यक्ति आय कम होने के कारण पूंजी निर्माण की दर भी कम है तथा उपलब्ध पूँजी सीमित मात्रा में है। अत: आवश्यक है कि उसका उचित प्रयोग किया जाए।
देश का सन्तुलित विकास करने के लिए संसाधनों को उचित दिशा में प्रवाहित करने के लिए, उत्पादन बढ़ाने के लिए, वितरण की व्यवस्था सुधारने के लिए, एकाधिकार, संयोजन और अधिकार युक्त हितों को समाप्त करने अथवा नियंत्रित करने के लिए कुछ गिने हुए व्यक्तियों के हाथ में धन अथवा आर्थिक सत्ता के केन्द्रीकरण को रोकने के लिए, असमानता घटाने के लिए, बेरोजगारी की समस्या को हल करने के लिए, विदेशों पर निर्भरता समाप्त करने के लिए तथा देश को सुरक्षा की दृष्टि से मजबूत बनाने के लिए एक उपयुक्त एवं स्पष्ट औद्योगिक नीति की आवश्यकता होती है।
वे क्षेत्र जहाँ व्यक्तिगत उद्यमी पहुँचने में समर्थ नहीं हैं, सार्वजनिक क्षेत्र में रखे जाएँ और सरकार उनका उत्तरदायित्व अपने ऊपर ले। साथ ही यह भी आवश्यक है कि निजी क्षेत्र का उचित नियंत्रण भी होना चाहिए जिससे कि विकास योजनाएं ठीक प्रकार से चलती रहे।
मध्यम और बड़े पैमाने के उद्योग और सेवा क्षेत्रों की तुलना में एमएसएमई क्षेत्र अपेक्षाकृत कम अनुकूल रूप से ऋण उपलब्धता और कार्यशील पूंजी की ऋण लागत के मामले में स्थित है। भारत अभी भी परिवहन उपकरण, मशीनरी (इलेक्ट्रिकल और गैर-इलेक्ट्रिकल), रसायन और उर्वरक, प्लास्टिक सामग्री आदि के लिए विदेशी आयात पर निर्भर है। औद्योगिक स्थान लागत प्रभावी बिंदुओं के संदर्भ के बिना स्थापित किए गए थे और अक्सर राजनीति से प्रेरित होते हैं। निजी क्षेत्र के उदारीकरण के 30 साल बाद भी सरकार टैरिफ दीवारें खड़ी करते हुए फिर से सब्सिडी और लाइसेंस दे रही है।
लालफीताशाही और तनावपूर्ण श्रम-प्रबंधन संबंधों की विशेषता वाले अप्रभावी नीति कार्यान्वयन के कारण इनमें से अधिकांश सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यम घाटे में चल रहे हैं। वर्तमान में पीएलआई के तहत चुने गए कई उद्योग अत्यधिक पूंजीगत और कौशल गहन हैं। हमारे भारी संख्या में अकुशल श्रमिकों के लिए रोजगार सृजन के लक्ष्य पर विचार किया जाना चाहिए और अनावश्यक सब्सिडी से बचना चाहिए। हमें गैर-निष्पादित फर्मों के साथ सख्त होना होगा। जरूरत पड़ने पर हम उनसे समर्थन वापस ले सकते हैं। इसके लिए अतिरिक्त प्रयासों की आवश्यकता है जो भारत में नौकरशाही की पारंपरिक संस्कृति से परे जाते हैं।
उत्पादकता में सुधार के लिए अनुसंधान और विकास को प्रोत्साहित करने, विस्तार सेवाओं, व्यावसायिक प्रशिक्षण, विनियमों और बुनियादी ढांचे में सुधार की आवश्यकता है। छोटी और मध्यम आकार की फर्मों की सहायता के लिए इन नीतियों को स्थानीय विकेंद्रीकृत संदर्भों में अनुकूलित करने की आवश्यकता है। रोजगार सृजन के लिए। उदा. नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादन और भंडारण, बायोप्लास्टिक, ड्रिप सिंचाई और वर्षा जल संचयन की तकनीकें, समुद्र की दीवारों का सुदृढ़ीकरण, हरित ऊर्जा से चलने वाले तिपहिया सार्वजनिक परिवहन आदि। औद्योगिक नीति में ऐसे उद्योग का निर्माण शामिल होना चाहिए जो नवाचार, प्रौद्योगिकी, वित्तीय रूप से व्यावहारिक और पर्यावरण के अनुकूल हो और जिसका लाभ समाज के सभी वर्गों द्वारा साझा किया गया हो।
औद्योगिकीकरण से अर्थव्यवस्था संतुलित होगी तथा कृषि की अनिश्चितता कम हो जायेगी। रोजगार में वृद्धि, औद्योगीकरण के फलस्वरूप नए-नए उद्योगों का निर्माण होगा और देश के लाखों बेरोजगारों को इन उद्योगों में काम मिलने लगेगा इससे बेरोजगारी कम होगी ।