उद्धव ठाकरे की शिवसेना की ओर से राष्ट्रपति पद की प्रत्याशी द्रौपदी मुर्मू को समर्थन देने की घोषणा यही बता रही है कि पार्टी के उन सांसदों के दबाव ने असर दिखाया, जो राष्ट्रपति के चुनाव में कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी यानी राकांपा का साथ देने के पक्ष में नहीं थे। उद्धव ठाकरे की घोषणा से केवल राष्ट्रपति प्रत्याशी के रूप में द्रौपदी मुर्मू की जीत और अधिक सुनिश्चित नहीं हुई है, बल्कि शिवसेना के संसदीय दल में टूट का खतरा भी टला है। निश्चित रूप से अभी यह कहना कठिन है कि यह खतरा सदैव के लिए टल गया है। आने वाले दिनों में विधायकों की तरह सांसद भी एकनाथ शिंदे का साथ देना पसंद करें तो हैरानी नहीं, क्योंकि उद्धव ठाकरे अभी भी कांग्रेस और राकांपा के साथ खड़े हैं।कल के वक्तव्य में श्री ठाकरे ने बोल्ड चेहरा दिखाते हुए अपने निर्णय को दबाव रहित बताया था। लेकिन चेहरे के हाव भाव में उनकी मन स्थिति खोल कर रख दिया।
महाविकास आघाड़ी की सरकार भले ही सत्ता से बाहर हो गई हो, लेकिन यह गठबंधन अभी भी बरकरार है। यदि उद्धव ठाकरे इस गठबंधन का हिस्सा बने रहना पसंद करते हैं तो वह स्वयं को और अधिक कमजोर करने का ही काम करेंगे। पता नहीं वह यह साधारण सी बात समझने को क्यों नहीं तैयार कि कांग्रेस और राकांपा का साथ लेकर शिवसेना के भविष्य को संवारा नहीं जा सकता? इसका कोई मतलब नहीं कि उद्धव ठाकरे एक ओर हिंदुत्व की बात करें और दूसरी ओर कांग्रेस एवं राकांपा का साथ भी देते रहें।यह भी
यह मानने के अच्छे-भले कारण हैं कि उद्धव ठाकरे को मजबूरी में द्रौपदी मुर्मू का साथ देने की घोषणा करनी पड़ी। उनके यह कहने का विशेष महत्व नहीं कि द्रौपदी मुर्मू को समर्थन देने का यह अर्थ न निकाला जाए कि पार्टी भाजपा का समर्थन कर रही है। इस तरह का स्पष्टीकरण कुछ अन्य विपक्षी राजनीतिक दलों को भी देना पड़ा है। इससे यदि कुछ साबित होता है तो यही कि विपक्ष ने राष्ट्रपति के प्रत्याशी के रूप में यशवंत सिन्हा के नाम की घोषणा करने में जल्दबाजी का परिचय दिया। वास्तव में इस जल्दबाजी के चलते ही उसे लेने के देने के पड़ गए हैं। वह बढ़त लेने के फेर में अपनी फजीहत करा बैठा।
स्थिति यह है कि जिन ममता बनर्जी ने यशवंत सिन्हा का नाम आगे बढ़ाया, वह भी दुविधा से ग्रस्त दिखने लगी हैं। इसका कारण यही है कि अन्य दलों की तरह तृणमूल कांग्रेस भी जनजाति समुदाय के लोगों को यह संदेश नहीं देना चाहती कि वह उनके समाज की द्रौपदी मुर्मू के राष्ट्रपति पद पर आसीन होने के पक्ष में नहीं। यशवंत सिन्हा का बंगाल का प्रस्तावित दौरा जिस तरह अधर में दिख रहा है, उससे यही स्पष्ट होता है कि राष्ट्रपति चुनाव अब एक औपचारिकता मात्र रह गया है। उसके परिणाम को लेकर अब कहीं कोई संशय नहीं।