महाराष्ट्र में राजनीति ने जिस तरह सेअपने तेवर बदलते हुए देश से परिवारवाद की राजनीति के खात्मे का श्रीगणेश किया है उसका प्रत्येक राजनीतिक दल के साधारण कार्यकर्ता को खुले दिल से स्वागत करना चाहिए। लोकतन्त्र में जिस तरह आज के दौर में लगभग हरेक राज्य में सत्ता पर अपना जन्मजात अधिकार मानने वाले खानदानी राजनीतिक दल काबिज हैं, उसे देखते हुए महाराष्ट्र का सत्ता परिवर्तन एक ऐसी नजीर बन सकता है जो जमीन से उठे कर्मठ कार्यकर्ता को प्रेरणा देता रहेगा। शिवसेना के संस्थापक स्व। बालठाकरे के पुत्र पूर्व मुख्यमन्त्री उद्धव ठाकरे की एकमात्र योग्यता यह थी कि वह बाला साहेब के पुत्र थे। मगर उन्होंने इसी परंपरा को मजबूत बनाते हुए अपने पुत्र आदित्य ठाकरे को अपने ही मन्त्रिमंडल में ढाई साल तक मन्त्री बनाये रखा। लोकतन्त्र का अर्थ जनता का शासन होता है। भाजपा ने राज्य के मुख्यमन्त्री की कमान उद्धव ठाकरे की पार्टी शिवसेना के ही एक जमीन से उठे कार्यकर्ता एकनाथ शिन्दे को सौंप कर यह सिद्ध कर दिया है कि उसने सिर्फ सत्ता पलटने की खातिर एकनाथ शिन्दे गुट की शिवसेना को समर्थन नहीं दिया है बल्कि इसके माध्यम से महाराष्ट्र के आम आदमी के हाथ में सत्ता सौपी है। लेकिन इसमें राजनीतिक चातुर्य न हो ऐसा भी नहीं है। भाजपा ने इस भ्रम को भी तोड़ दिया है कि विधानसभा में सबसे बड़ी पार्टी (106 विधायक) होने की वजह से मुख्यमन्त्री पद पर उसका ही दावा बनता है। इसके विपरीत केवल 40 विधायकों वाली शिन्दे शिवसेना के नेता एकनाथ शिन्दे को मुख्यमन्त्री पद देकर उसने यह सिद्ध किया है कि सिद्धान्तवादी राजनीति करने के लिए यदि निजी हितों का बलिदान भी करना पड़े तो भी पीछे नहीं हटना चाहिए।
गौरतलब है कि अब उद्धव ठाकरे के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने के साथ महाराष्ट्र में जारी सियासी उथल-पुथल तो खत्म हुई। अब ध्यान देने योग्य बात यह है कि जब महाराष्ट्र के देवेंद्र फडणवीस जब एकनाथ शिंदे के साथ प्रेस कॉन्फ्रेंस करने आए। तो, उनकी चेहरे पर मुस्कुराहट के साथ एक अजीब सा संतोष झलक रहा था। देवेंद्र फडणवीस ने फिर से दोहराया कि महाविकास आघाड़ी सरकार अपने ही अंर्तविरोध से गिरी है। और, इसके बाद फडणवीस ने शिवसेना के दिग्गज नेता एकनाथ शिंदे को मुख्यमंत्री बनाने का ऐलान कर दिया। देवेंद्र फडणवीस की ये घोषणा सियासी विश्लेषकों को हैरान करने वाली थी।एक पूर्व मुख्यमंत्री जिसे भाजपा ने चुनाव से पहले मुख्यमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित किया हो। एक ऐसा पूर्व मुख्यमंत्री जिसके पास 120 विधायकों का समर्थन हो। वह अपनी कुर्सी को एक शिवसैनिक के लिए छोड़ रहा था। फैसला हैरानी भर था। क्योंकि, शिवसेना ने भाजपा से इसी मुख्यमंत्री पद की वजह से अपना नाता तोड़ा था। और, अब भाजपा ने शिवसेना के ही बागी विधायक को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठा दिया है। खैर, एकनाथ शिंदे अब महाराष्ट्र के नए मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ लेने वाले हैं। इस स्थिति में सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर एकनाथ शिंदे को मुख्यमंत्री पद देकर भाजपा ने क्या पाया?
मुंबई भाजपा ने एक ट्वीट किया है कि ‘यह तो झांकी है, मुंबई महापालिका बाकी है।’ दरअसल, लंबे समय से बृहन्मुंबई महानगर पालिका में शिवसेना का एकछत्र कब्जा रहा है। और, भाजपा ने एकनाथ शिंदे को मुख्यमंत्री बनाकर अब अपना अगला निशाना साफ कर दिया है। देखा जाए, तो भाजपा ने शिंदे के सहारे महानगर पालिका में शिवसेना के दशकों से चले आ रहे आधिपत्य को चुनौती दी है। क्योंकि, भाजपा तकरीबन हर राज्य के चुनावी प्रचार में ‘डबल इंजन’ की बात करती है। तो महानगर पालिका चुनाव में इस बार भाजपा के पास ‘ट्रिपल इंजन’ के प्रचार का मौका रहेगा।
शिवसेना प्रमुख और पूर्व मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने इस्तीफा देने से पहले फेसबुक लाइव के जरिये अपने लिए सहानुभूति बटोरनी की हरसंभव कोशिश की। आखिरी कैबिनेट बैठक में औरंगाबाद और उस्मानाबाद का नाम बदलने का प्रस्ताव पारित करना इसी का एक हिस्सा था। ताकि, शिवसेना के मतदाताओं को पार्टी के साथ विचारधारा से समझौता न करने के नाम पर बनाया रखा जा सके। लेकिन, देवेंद्र फडणवीस के एकनाथ शिंदे को मुख्यमंत्री बनाने के ऐलान के साथ ही उद्धव ठाकरे के लिए पैदा हुई सहानुभूति शून्य हो गई। क्योंकि, खुद उद्धव ठाकरे ने भी भाजपा से शिवसेना की राह अलग होने का कारण मुख्यमंत्री पद को बताया था। लेकिन, भाजपा ने एकनाथ शिंदे को मुख्यमंत्री बनाकर विचारों के उस बुलबुले को ही फोड़ दिया।
एकनाथ शिंदे का मुख्यमंत्री बनना हैरानी वाला फैसला है। लेकिन, उससे भी ज्यादा हैरानी की बात ये थी कि शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे की एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में बागी हुए विधायकों की वापस लाने की कोई भी अपील और दांव काम नहीं आया। उद्धव ठाकरे ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने के साथ ही विधान परिषद की सदस्यता से भी इस्तीफा दिया है। तो, माना जा सकता है कि उद्धव ठाकरे ने बगावत के आगे पूरी तरह से घुटने टेक दिए हैं। वहीं, भाजपा ने एकनाथ शिंदे का कद बढ़ाकर शिवसेना में पड़ी फूट को और बड़ा स्तर देने का दांव खेला है। क्योंकि, शिंदे गुट के बागी होने के बाद कई शिवसेना सांसद भी बागी विधायकों के पक्ष में आ गए थे। इन सांसदों ने उद्धव ठाकरे से भाजपा के साथ गठबंधन में लौटने की अपील की थी। लेकिन, शिवसेना प्रमुख अपने बेटे आदित्य ठाकरे के लिए मुख्यमंत्री पद की राह बनाने के चक्कर में सबकुछ गंवा बैठे।
उद्धव ठाकरे ने शिवसेना को एनसीपी और कांग्रेस का समर्थन दिलाकर महाविकास आघाड़ी सरकार बना ली थी। लेकिन, इसके चलते उद्धव ठाकरे को हिंदुत्व समेत तमाम उन मुद्दों को साइडलाइन करना पड़ा था। जो शिवसेना के एजेंडे का अहम हिस्सा रहे थे। आसान शब्दों में कहा जाए, तो उद्धव ठाकरे ने हिंदुत्व को खूंटी पर टांगकर सत्ता को चुना था। देवेंद्र फडणवीस ने भी कहा कि शिवसेना ने बालासाहेब ठाकरे के विचारों को किनारे रखते हुए महाविकास आघाड़ी सरकार बनाने के फैसला किया था। लेकिन, भाजपा ने शिवसेना में हिंदुत्व के नाम पर बागी होने वाले एकनाथ शिंदे गुट को समर्थन देकर ये संदेश देने में कामयाबी पाई है कि पार्टी हिंदुत्व की कीमत पर सत्ता पाने की कोशिश नहीं करती है। बल्कि, हिंदुत्व का समर्थन करने वालों को उचित सम्मान भी देती है। फडणवीस का खुद को सरकार से बाहर रखना संदेश है कि देवेंद्र अब महाराष्ट्र के नए चाणक्य हैं।
एकनाथ शिंदे की बगावत को राजनीतिक पंडितों ने भाजपा का ‘ऑपरेशन लोटस’ करार दिया था। कहा जा रहा था कि सत्ता में आने के लिए भाजपा ने एकनाथ शिंदे गुट की बगावत को पर्दे के पीछे से हवा दी है। लेकिन, एकनाथ शिंदे को मुख्यमंत्री बनाकर भाजपा उन तमाम आलोचनाओं और तोहमतों से खुद को बचा ले गई, जो उस पर ‘ऑपरेशन लोटस’ के नाम पर लगाई जा सकती थीं। इतना ही नहीं, तकनीकी तौर पर देखा जाए, तो भाजपा को अभी भी शिवसेना का ही समर्थन प्राप्त है। क्योंकि, सारे बागी विधायक अभी भी शिवसेना का ही हिस्सा हैं। जिन्होंने एनसीपी और कांग्रेस जैसी विपरीत विचारधारा वाली पार्टियों के खिलाफ बगावत की।
अशोक भाटिया,पत्रकार एवं लेखक