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योगी का अयोध्या से चुनाव लड़ने का मतलब

by zadmin

राम जन्मभूमि क्षेत्र से  मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के विधानसभा चुनाव लड़ने की खबर से जनता तो खुश है पर  सबसे ज्यादा खुश अयोध्या के विधायक वेद प्रकाश गुप्त नजर आ रहे  हैं ।  ऐसा होने को वे  अपने लिए सौभाग्य तो बता ही रहे हैं, कह रहे हैं कि वो तो 2017 से ही इंतजार में बैठे हैं । योगी आदित्यनाथ जब मुख्यमंत्री बने उस वक्त गोरखपुर से सांसद थे  और बाद में विधान परिषद के सदस्य बन गये  । भाजपा  विधायक वेद प्रकाश गुप्त ने तो बोल दिया है कि वो योगी आदित्यनाथ के लिए अपनी सीट छोड़ने के लिए तैयार हैं. राजनीतिक दलों के किसी बड़े नेता के क्षेत्र विशेष से चुनाव लड़ने का बड़ा फायदा ये होता है कि आस पास की सीटों पर भी उसका सकारात्मक प्रभाव पड़ता है । चुनाव क्षेत्र के इर्द गिर्द के लोग भी खुद को नेता से जुड़ा महसूस करते हैं और अपनी तरफ से योगदान के रूप में संबंधित राजनीतिक दल के पक्ष में वोट करते हैं ।किसी भी राजनीतिक दल को अगर अपने नेता की जीत को लेकर शक शुबह होती  हैं तो किसी ऐसे क्षेत्र की तलाश होती है जहां जीत की गारंटी हो – लेकिन योगी आदित्यनाथ के साथ  ऐसा है नहीं ।

रही बात अयोध्या विधानसभा क्षेत्र या उसके आस पास के इलाकों की । भाजपा  को चुनाव जीतने के लिए योगी आदित्यनाथ की जरूरत हो सकती है. ये अपने आप में बड़ा सवाल खड़ा करता है ।जिस अयोध्या में पहले से ही बहुप्रतीक्षित राम मंदिर के निर्माण का कार्य प्रगति पर हो, वहां योगी आदित्यनाथ ही क्यों नरेंद्र मोदी की भी वोट खींचने के लिए कोई जरूरत हो सकती है क्या? और अगर लोगों की नाराजगी हदें ही पार कर चुकी हो तो क्या अयोध्या-काशी और क्या मथुरा – जनता तो किसी की कहीं भी मिट्टी पलीद कर सकती है ।आने वाले विधानसभा चुनाव चाहे उत्तर प्रदेश  के हों या फिर बाकी चार राज्यों के भाजपा  की बात होते ही सीधे उसके तार पश्चिम बंगाल चुनाव से जुड़ जाते हैं । बंगाल ने जो जख्म दिये हैं, भाजपा  के लिए लंबे समय तक उससे उबरना मुश्किल हो सकता है, कम से कम तब तक नहीं जब तक कि वैसी ही भरपाई न हो जाये ।जिस तरह से योगी आदित्यनाथ और उनके मंत्रियों या प्रदेश भाजपा  अध्यक्ष को चुनाव लड़ाये जाने की बात हो रही है, भाजपा  ऐसे कई प्रयोग हाल ही में खत्म हुए पश्चिम बंगाल चुनाव में कर चुकी है ।

भाजपा  के लिए मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के खिलाफ सिर्फ शुभेंदु अधिकारी की जीत ही ऐसी रही जिस पर वो चाहे तो संतोष करे या गम भुलाने के लिए खुशी से फूले न समाये वरना न बंगाली भद्रलोक को राज्यसभा सांसद रहे स्वप्नदास गुप्ता पसंद आये – और न ही केंद्रीय मंत्री रहते बाबुल सुप्रियो ।अब अगर उत्तर प्रदेश या दूसरे राज्यों में विधानसभा चुनावों में भाजपा  बंगाल जैसे प्रयोग करने का इरादा कर चुकी है तो कम से कम दो बार शांति के साथ और मिलजुल कर कदम बढ़ाने से पहले जरूर सोचना चाहिए ।

उत्तर प्रदेश  में चुनाव बाद सत्ता में वापसी की बात भले ही चुनौतीपूर्ण लगे, लेकिन योगी आदित्यनाथ तो उत्तर प्रदेश  क्या इतनी हैसियत तो रखते ही हैं कि हिंदुत्व की राजनीति को पसंद करने वाली आबादी या फिर जहां नाथ पंथ के अनुयायी रहते हैं उनके वोट तो योगी को आसानी से मिल सकते हैं , भले ही वो कर्नाटक का कोई इलाका हो, त्रिपुरा हो या देश का कोई और ही हिस्सा क्यों न हो ।मायावती की तरफ से बसपा  महासचिव सतीश चंद्र मिश्रा तो अयोध्या जाकर ब्राह्मण सम्मेलन करने के साथ अगला पड़ाव काशी बता भी चुके हैं, लेकिन समाजवादी पार्टी नेता अखिलेश यादव को तो वाराणसी का अपना ऐसा ही मिलता-जुलता कार्यक्रम ही रद्द करना पड़ा है ।अब अखिलेश यादव की तरफ से कहा जा रहा है कि प्रदेश  चुनाव जीतने के बाद ही वो काशी विश्वनाथ का दर्शन करने बनारस जाएंगे । हुआ ये था कि अखिलेश यादव को सावन के पहले सोमवार को काशी विश्वनाथ के दर्शन और अभिषेक के लिए बुलाया गया था ,तभी प्रचारित कर दिया गया समाजवादी पार्टी नेता यादव समाज के साथ काशी विश्वनाथ का दुग्धाभिषेक करने जा रहे हैं । बाद में बुलाने वालों की ही तरफ से कुछ लोगों ने स्थिति स्पष्ट की कि ये निजी तौर पर होने वाले आयोजन का हिस्सा होगा और उसे राजनीतिक रंग देने की कोशिश ठीक नहीं होगी ।अयोध्या के ब्राह्मण सम्मेलन में सबसे ज्यादा ध्यान देने वाला बयान तो सतीश चंद्र मिश्रा के देर होने की सफाई वाला रहा । सतीश चंद्र मिश्रा करीब दो घंटे की देर से ब्राह्मण सम्मेलन में पहुंचे थे , लेकिन उसमें भी एक राजनीतिक ऐंगल निकाल लिये ।बसपा  महासचिव ने जोर देकर बताया कि उनको देर इसलिए हो गयी क्योंकि वो सम्मेलन से पहले रामलला और हनुमानगढ़ी में दर्शन करने गये थे ,और फिर सरयू तट पर आरती में भी शामिल हुए ।

दलितों की पार्टी के नेता के ब्राह्मणों के नाम पर आयोजित एक जातीय सम्मेलन में हिंदुत्व की राजनीति का संदेश देने की ये बड़ी ही सोची समझी कोशिश लगती है । दलित वोट बैंक में हिस्सेदारी कम होने की भरपायी मायावती लगता है भाजपा  के हिंदुत्व की लाइन पर आगे बढ़ कर राजनीति करने की कोशिश कर रही हैं ।मौका देख कर बसपा  नेता विश्व हिंदू परिषद और भाजपा  को भी सवालों के कठघरे में खड़ा कर  अयोध्या आंदोलन से जुड़े पिछले तीस साल का हिसाब भी मांग लिया.  सतीश चंद्र मिश्रा का कहना था कि  एक साल में मंदिर की नींव भी नहीं बन पा रही है । मंदिर बनेगा या नहीं, ये आज भी प्रश्न है ।

अयोध्या में बसपा  के ब्राह्मण सम्मेलन में जो नारे लगे उन पर भी गौर किया जाना जरूरी लगता है । जय भीम तो बसपा  के कार्यक्रमों में लगने वाला आम नारा है । फिर ब्राह्मणों के लिए जय परशुराम का नारा भी लगाया गया, लेकिन गौर करने वाली बात रही कि ‘जय श्री राम’ और ‘जय भारत’ के नारे भी लगे ।जय भारत के नारे का मतलब हुआ भाजपा  के राष्ट्रवाद के एजेंडे में घुसने की कोशिश और जय श्रीराम का मतलब हिंदुत्व की राजनीति में हिस्सेदारी जमाने की कवायद. साथ में अयोध्या, मथुरा, काशी और चित्रकूट में भी यही दोहराये जाने की घोषणा भी ।

अव्वल तो योगी आदित्यनाथ के अयोध्या से चुनाव लड़ने का आइडिया ही बड़ा अजीब लगता है । जब भाजपा  अयोध्या मुद्दे पर आम चुनाव जीत सकती है. सिर्फ जीतने की ही कौन कहे 2014 के मुकाबले 2019 में पहले से ज्यादा सीटें जीत सकती है, फिर अयोध्या को लेकर डरने की जरूरत क्यों पड़ रही है?और अगर राम मंदिर निर्माण से बने माहौल में भी भाजपा  को वोट नहीं मिलने की आशंका है, तो क्या गारंटी है कि योगी आदित्यनाथ के अयोध्या से चुनाव मैदान में उतर जाने से कोई फर्क भी पड़ेगा ।अगर भाजपा  को लग रहा है कि कोरोना संकट में योगी सरकार के कामकाज से लोगों की नाराजगी भारी पड़ सकती है, तो ऐसी नाराजगी की भरपायी भला योगी आदित्यनाथ के अयोध्या से चुनाव लड़ने से कैसे हो सकती है ?

मुख्यमंत्री बनने के बाद से ही योगी आदित्यनाथ गोरखपुर से पहले अयोध्या में दिवाली मनाते रहे हैं । अयोध्या नामकरण का क्रेडिट भी योगी आदित्यनाथ के खाते में ही जुड़ा है. साल भर पहले ही राम मंदिर के लिए प्रधानमंत्री मोदी के साथ भूमि पूजन भी कर चुके हैं । फिर चुनाव लड़ने के बारे में सोचने की भी जरूरत क्यों आ पड़ी है? क्या महज इसलिए कि बसपा  ने अयोध्या में ब्राह्मण सम्मेलन कर लिया है – और वहां जय श्रीराम के नारे लगाये गये हैं?

अशोक भाटिया,

स्वतंत्र पत्रकार

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