पश्चिम बंगाल में इस बार जाति आधारित राजनीति खूब हुई. भारतीय जनता पार्टी और तृणमूल कांग्रेस दोनों ने लगभग 23.5% अनुसूचित जाति , 5 % अनुसूचित जनजाति और 17 अन्य पिछड़ा वर्ग को लुभाने के लिए सभी दांवपेंच चले. आठवें और आखिरी चरण का मतदान गुरुवार को हुआ और मतगणना 2 मई को होगी.
बंगाल के दलित और आदिवासी वोटों देखते हुए भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा और मुख्यमंत्री और टीएमसी अध्यक्ष ममता बनर्जी दोनों ने ओबीसी वर्ग में महिसा, तेली, तमुल और साहा जैसी जातियों को शामिल करने के लिए अलग से एक आयोग के गठन का वादा किया है. हालांकि, पश्चिम बंगाल में दशकों से जाति की राजनीति मौजूद थी लेकिन इस बार टीएमसी और बीजेपी का मुकाबला ऐसा था कि इससे पहले के चुनावों में इस तरह का धार्मिक बंटवारा कभी नहीं देखा गया.
दलित और पिछड़े वर्गों के बीच क्यों बढ़ा असंतोष?
दलित और पिछड़े वर्गों के बीच बढ़ते असंतोष के पीछे मंडल आयोग की रिपोर्ट के कार्यान्वयन में असमानताएं और दशकों से समुदायों की जरूरतों के प्रति कथित लापरवाही है. मंडल कमीशन के तहत पश्चिम बंगाल में 177 ओबीसी जातियों को मान्यता दी गई लेकिन राज्य की वाम मोर्चे की सरकार ने ज्योति बसु के तहत नौ मुस्लिम जातियों सहित 64 समुदायों को ओबीसी के रूप में मान्यता दी और उन्हें 1993 में 7% आरक्षण दिया.
साल 2010 में, वाम सरकार ने ओबीसी आरक्षण के तहत दो अलग-अलग वर्गों का निर्माण किया: कैटेगरी ए और कैटेगरी बी. कैटेगरी A में 10 प्रतिशत आरक्षण ‘अधिक पिछड़े’ के रूप में मान्यता प्राप्त लोगों को दिया गया था जबकि कैटेगरी B में, सात प्रतिशत आरक्षण ‘पिछड़े’ को दिया गया था, और इसने ओबीसी सूची में मुस्लिम समुदायों की संख्या नौ से बढ़कर 53 कर दी गई.
2011 में सत्ता में आई टीएमसी सरकार उसी नीति के साथ कायम रही. नतीजतन आज कैटेगरी ए में 81 जातियां हैं, जिनमें से 73 मुस्लिम समुदाय की हैं, जबकि श्रेणी बी में 96 जातियां हैं, जिनमें से 44 मुस्लिम हैं. साल 1993 से साल 2020 तक, मुस्लिम जातियों की संख्या नौ से बढ़कर 117 (राज्य की कुल मुस्लिम आबादी का 90 प्रतिशत) हो गई है, जिनमें से 65 को वर्तमान टीएमसी सरकार ने पिछले आठ वर्षों में जोड़ा था.
मंडल आयोग के अनुसार केवल 12 जातियां मुस्लिम समुदाय से थीं और लगभग 150 पश्चिम बंगाल में हिंदू OBC थे. अब तक 150 में से केवल 67 जातियों को ओबीसी सूची में शामिल किया गया है. आलोचकों का कहना है कि आरक्षण के लाभ से हिंदू ओबीसी की बड़ी आबादी वंचित है. भाजपा ने साल 2019 के लोकसभा चुनाव में इस मुद्दे को भुनाया और राज्य की 42 में से 18 सीटें जीत लीं.
पीएम मोदी गए बांग्लादेश
बाउरी, बागड़ी और नाश्या सेख के अलावा, उत्तर बंगाल के राजबोंगशी समुदाय और पूर्वी पाकिस्तान के मटुआ शरणार्थी प्रमुख समूह हैं जो कई सीटों पर नतीजे तय कर सकते हैं. ये बंगाल के दो सबसे बड़े दलित समुदाय हैं जिन्हें टीएमसी और भाजपा दोनों ने लुभाने की कोशिश की है. बंगाल की राजनीति में मटुआओं का ऐसा दबदबा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी चुनावों के बीच मटुआ के आध्यात्मिक गुरु हरिचंद ठाकुर के जन्मस्थान बांग्लादेश के ओराकांडी में उनके प्रसिद्ध मंदिर गए.
बीजेपी और टीएमसी दोनों ही बंगाल में खुद को दलितों के अधिकारों और अन्य पिछड़े समुदायों के रक्षक के रूप में पेश करने की कोशिश कर रहे हैं. राज्य की 68 विधानसभा सीटें एससी और 16 एसटी के लिए आरक्षित हैं. विश्लेषकों का कहना है कि वाम मोर्चे ने अपनी जातियों के आधार पर लोगों को नहीं जुटाया. उन्होंने निचली जातियों को सशक्त बनाने के लिए एक अलग तरीके से जातियों को संभाला. इससे उन्हें 34 वर्षों तक सत्ता बनाए रखने में मदद मिली, लेकिन राज्य की अर्थव्यवस्था पर इसका विनाशकारी प्रभाव पड़ा क्योंकि उद्योगपति यहां से दूर चले गए. विश्लेषकों का कहना है कि मजदूर वर्ग की समस्याओं के कारण बंगाल में निचली जाति के लोगों का वर्चस्व था.फिर साल 2011 में ममता ने बंगाल में मटू, राजबोंगिस, कामतापुरियाँ, गोरखा, संथाल, लोढा, सबर, नाशिया सेख, मुंडा, बगदीस, बाउरी और अन्य दलित और आदिवासी समूहों का विश्वास जीतने के बाद सत्ता में वापसी की मुस्लिम वोट आधार के अलावा, अधिकांश राजनीतिक दलों ने महसूस किया है कि विधानसभा चुनावों में, दलित और अन्य पिछड़े समुदाय सत्ता की कुंजी हैं.