कोरोना काल में पुलिस प्रशासन का मानवीय चेहरा ——अशोक भाटिया
जहां कुछ जगहों पर पुलिस के बुरे बर्ताव को लेकर उसकी आलोचना हो रही है, वहीं कुछ जगहों पर उसका बहुत मानवीय चेहरा भी देखा जा रहा है। मुंबई की एक घटना के अनुसार कर्फ्यू के दौरान पुलिस जहां दिन-रात गस्त लगा रही है, वहीं पुलिस भूखे लोगों को खाना भी मुहैया करा रही है। दो दिन से भूखे पटेल परिवार को अंटॉप हिल पुलिस ने खाना ही नहीं मुहैया कराया, बल्कि एक महीने का राशन भी दिलवाया।पेशे से ड्राइवर भुल्लू पटेल को जब भूख सहन नहीं हुई तो मदद लिए वह अंटॉपहिल पुलिस स्टेशन गए। वहां उन्होंने पुलिस को बताया कि उनका परिवार दो दिन से भूखा है। उनके घर में खाने के लिए कुछ नहीं है। उनके परिवार में दो महिलाएं व चार बच्चे हैं। वे सब पानी पीकर दिन गुजार रहे हैं। भुल्लू ने पुलिस को बताया कि जहां वह नौकरी करते हैं, उनका मालिक गांव चला गया है, इसलिए उनकी ऐसी हालत हुई है। उनके पास अब पैसे नहीं हैं। उनकी पत्नी गर्भवती हैं।ड्राइवर भुल्लू पटेल की स्थित सुनकर पहले तो पुलिस ने उन्हें कुछ पैसे और खाने को दिया। और तो और उपस्थित पुलिसकर्मियों ने अपनी जेब से पैसा निकालकर दिया। स्थानीय लोगों की मदद से पुलिस ने पटेल परिवार के लिए एक महीने का राशन खरीदकर दिया। पुलिस वालों ने परिवार को कोरोना से बचने के लिए जरूरी एहतियात बरतने की भी हिदायत दी।
इस समय कोरोना संक्रमण को लेकर जिस तरह देश में हाहाकार मचा हुआ है और सामान्य नागरिक अपने परिजनों की जान की सुरक्षा के लिए ऑक्सीजन के लिए अस्पताल दर अस्पताल भटक रहे हैं ,उसे देखते हुए देश की आंतरिक कानून-व्यवस्था को सुचारू बनाये रखने की जिम्मेदारी पुलिस प्रशासन पर ही आ जाती है। इस संकट की घड़ी में पुलिस की भूमिका केवल ‘कोरोना वारियर’ की ही नहीं बल्कि आम जनता में बेचैनी को रोकने की भी बन जाती है। एक तरफ जब विभिन्न राज्य सरकारें आक्सीजन की सप्लाई पर लगभग झगड़ रही हैं वहां ऐसे राज्यों की पुलिस की विशेष जिम्मेदारी बन जाती है कि वह लोगों के आक्रोश को अराजकता में न बदलने दे। इसके साथ ही राज्य सरकारें स्वयं ही संक्रमण की रोकथाम के लिए नागरिकों पर जो प्रतिबंध लगा रही हैं उन्हें भी लागू होते देखने का दायित्व पुलिस पर ही आ जाता है। जाहिर है कि भारत में अभी तक पुलिस की प्रतिष्ठा ऐसे बल के रूप में रही है जो नागरिकों के प्रति सौजन्यता कम और आक्रामकता ज्यादा रखती है परन्तु लोकतंत्र की यह भी विशेषता होती है कि इसमें परिवर्तन समय के अनुसार होता रहता है। आज का समाज सत्तर के दशक का समाज बिल्कुल नहीं है और न ही वे सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियां हैं जो उस काल में थीं।
बाजार मूलक अर्थव्यवस्था का दौर शुरू होने के बाद केवल राजनीति का चरित्र ही नहीं बदला है बल्कि प्रशासन के हर अंग के व्यवहार में बदलाव आया है। पिछले तीस वर्षों में लोगों के सरोकारों में परिवर्तन आया है यहां तक कि गरीबी की परिभाषा में भी परिवर्तन आया है। बदलते समाज की वरीयताओं का असर पुलिस प्रशासन पर न पड़ा हो ऐसा संभव नहीं है। अतः खुले बाजार की क्रूरता और प्रतियोगिता ने देश के पुलिस बलों के रवैये को भी बदला है। समाज में शिक्षा का प्रसार और नागरिक अधिकारों के प्रति चेतना से पुलिस बल को अपने काम करने के अंदाज में भी परिवर्तन करना पड़ा है परन्तु सबसे सुखदायी परिवर्तन यह हुआ है कि पुलिस का चेहरा बदलते समय के अनुरूप अधिक मानवीय हो रहा है और उसकी कार्यप्रणाली अधिक पारदर्शी बन रही है परन्तु सबसे बड़ा परिवर्तन यह हुआ है कि पुलिस बल के जवानों में अपनी वर्ग संवेदनशीलता इस प्रकार बढ़ रही है कि वे मानव त्रासदी के समय स्वयं को समाज से अधिक जुड़ा हुआ महसूस करते हैं। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि पुलिस बल के अधिसंख्य जवान समाज के निचले तबकों से ही आते हैं और वे बहुसंख्य जनता की रोजी-रोटी के लिए की जा रही जद्दोजहद को कही न कहीं करीब से महसूस करते हैं।
यह सब भारत के बदलते आर्थिक ढांचे का ही प्रतिफल है। इसी वजह से हमें अक्सर एेसे दृश्य और घटनाएं सुनने-पढ़ने को मिल जाती हैं कि पुलिस के सिपाही ने किसी मदद मांगते व्यक्ति की सहायता सभी सीमाएं तोड़ते हुए कीं। यह प्रश्न बहुत व्यापक है जिसका सम्बन्ध संविधान के शासन से जाकर ही जुड़ता है। यह संविधान का शासन ही पुलिस की मूल जिम्मेदारी भी होती है जिसे स्थापित करने में लोकतंत्र में पुलिस का मानवीय होना अत्यंत आवश्यक होता है। कोरोना काल में पुलिस जिस तरह ऑक्सीजन के टैंकरों के अस्पताल तक पहुंचने की निगरानी कर रही है उससे यह नतीजा निकाला जा सकता है कि शासन का यह अंग अपने दायित्व के मानवीय पक्ष की पैरोकारी कर रहा है। पुलिसकर्मियों ने कुछ अस्पतालों के लिए ऑक्सीजन सिलेंडर का प्रबंध किया। कोरोना की पहली लहर के दौरान भी कई पुलिस अफसरों और जवानों की जानें भी गईं। वे अब भी दिन-रात की ड्यूटी कर रहे हैं।
दूसरी तरफ अपने-अपने राज्यों में पुलिस कोरोना नियमचार के पालन के लिए भी प्रतिबद्ध है। उसका यह कार्य उसे नागरिक आलोचना का भी शिकार बनाता है परन्तु इसके साथ यह भी सत्य है कि चिकित्सा आपदा के दौर में पुलिस बल के जवान किसी नागरिक की आर्थिक स्थिति का भी संज्ञान लेते हैं। यह वर्ग चेतना नहीं है बल्कि मानवीय चेतना है जिसका सम्मान समाज को करना चाहिए। जब कोई पुलिस का जवान ट्रैफिक नियम तोड़ते किसी धनवान व्यक्ति को कानून की जद में लेता है तो वह संविधान के शासन को ही जमीन पर उतारने का काम करता है।
अशोक भाटिया,
स्वतंत्र पत्रकार