दर्दीले दोहे
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(विरहन की पीर)
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कानन कोयल कूकती,कागा कर्कश धाम ।
कंत काम कैसे करूं,आग लगाए काम ।।
बोलत,डोलत कॅंपकपी,छोलत हिया बयार ।
घर आ सजना नाहिं तौ,हाथ लगे हरिद्वार ।।
धुन्ध सरीखी जिंदगी,कमल दंड-सी राह ।
कोरोना-सा समय है,सारा यौवन स्याह ।।
मेंहदी,मेहर,मंजरी, मौसम हुए मलीन ।
प्रकृति पराई लग रही,सब कुछ पिया अधीन ।।
आम टिकोरे डाल पर,रोज करें अपमान ।
झुमका पहनी डालियां,दिखा रहीं मुसकान ।।
पनघट सूखे गांव के,सूखे पोखर ताल ।
अंखियां सूखीं बरस कर,कैसे उड़े गुलाल ।।
सूने पनघट लग रहे,मरघट लगते द्वार ।
हरजाई बगिया लगे,काट रहे कचनार ।।
बेदर्दी समझे नहीं,विरहन वाली पीर ।
प्यासी मछली व्यथित हैं,ज्यों नदिया के तीर ।।
मुरझाए किसलय अधर,सूखे हिय के घाट ।
बिनु साजन ससुराल में,कहाँ धरी है ठाट ।।
सुन रे सइयां सांवरे,सही न जाए पीर ।
अबुझ अमंगल अहर्निश,झांझर भयो शरीर ।।
सुरेश मिश्र