Home विविधाखोज खबर ग्लोबल वार्मिंग व औद्योगीकरण के कारण आग उगल रहा आसमान—-अशोक भाटिया

ग्लोबल वार्मिंग व औद्योगीकरण के कारण आग उगल रहा आसमान—-अशोक भाटिया

by zadmin

धरती का तापमान लगातार बढ़ रहा है और दुनियाभर के लोग इसको लेकर चिंतित हैं। इसके दुष्प्रभाव भी देखने को मिल रहे हैं।इसका पहला कारण हैं  ग्लोबल वार्मिंग का असर जो  हमारे मौसम चक्र पर भी पड़ा है, जिसके कारण अब पहले की अपेक्षा अब ज्यादा गर्मी और ज्यादा समय तक पड़ती है। ऐसे में चिलचिलाती धूप और उमस में लोगों का जीना मुहाल हो जाता है।यूं तो ग्लोबल वार्मिंग की समस्या पूरी दुनिया में बढ़ रही है। किसी समस्या का यह सबसे खतरनाक पहलु होता है कि हमें यह पता होता है कि समस्या की जड़ कहां है और हम उस जड़ को खत्म करने की बजाय उसको सहला रहे होते हैं। दुनिया में बदलती जलवायु और भयानक होते मौसम परिवर्तनों का यही हाल है। हर कोई जानता है कि यह सब क्यों हो रहा है और कैसे हो रहा है लेकिन कोई भी वह सब करने को तैयार नहीं कि यह रुके और दुनिया का सामूहिक भविष्य बचा रहे। ग्लोबल वार्मिंग या वैश्विक तापमान बढ़ने का मतलब है कि पृथ्वी लगातार गर्म होती जा रही है। वैज्ञानिकों का कहना है कि आने वाले दिनों में सूखा बढ़ेगा, बाढ़ की घटनाएँ बढ़ेगी और मौसम का मिज़ाज पूरी तरह बदला हुआ दिखेगा।

आसान शब्दों में समझें तो ग्लोबल वार्मिंग का अर्थ है ‘पृथ्वी के तापमान में वृद्धि और इसके कारण मौसम में होने वाले परिवर्तन’ पृथ्वी के तापमान में हो रही इस वृद्धि (जिसे 100 सालों के औसत तापमान पर 10 फारेनहाईट आँका गया है) के परिणाम स्वरूप बारिश के तरीकों में बदलाव, हिमखण्डों और ग्लेशियरों के पिघलने, समुद्र के जलस्तर में वृद्धि और वनस्पति तथा जन्तु जगत पर प्रभावों के रूप के सामने आ सकते हैं।ग्लोबल वार्मिंग दुनिया की कितनी बड़ी समस्या है, यह बात एक आम आदमी समझ नहीं पाता है। उसे ये शब्द थोड़ा टेक्निकल लगता है। इसलिये वह इसकी तह तक नहीं जाता है। लिहाजा इसे एक वैज्ञानिक परिभाषा मानकर छोड़ दिया जाता है। ज्यादातर लोगों को लगता है कि फिलहाल संसार को इससे कोई खतरा नहीं है।

भारत में भी ग्लोबल वार्मिंग एक प्रचलित शब्द नहीं है और भाग-दौड़ में लगे रहने वाले भारतीयों के लिये भी इसका अधिक कोई मतलब नहीं है। लेकिन विज्ञान की दुनिया की बात करें तो ग्लोबल वार्मिंग को लेकर भविष्यवाणियाँ की जा रही हैं। इसको 21वीं शताब्दी का सबसे बड़ा खतरा बताया जा रहा है। यह खतरा तृतीय विश्वयुद्ध या किसी क्षुद्रग्रह  के पृथ्वी से टकराने से भी बड़ा माना जा रहा है।ग्लोबल वार्मिंग के कारण होने वाले जलवायु परिवर्तन के लिये सबसे अधिक जिम्मेदार ग्रीन हाउस गैस हैं। ग्रीन हाउस गैसें, वे गैसें होती हैं जो बाहर से मिल रही गर्मी या ऊष्मा को अपने अंदर सोख लेती हैं। ग्रीन हाउस गैसों का इस्तेमाल सामान्यतः अत्यधिक सर्द इलाकों में उन पौधों को गर्म रखने के लिये किया जाता है जो अत्यधिक सर्द मौसम में खराब हो जाते हैं। ऐसे में इन पौधों को काँच के एक बंद घर में रखा जाता है और काँच के घर में ग्रीन हाउस गैस भर दी जाती है। यह गैस सूरज से आने वाली किरणों की गर्मी सोख लेती है और पौधों को गर्म रखती है। ठीक यही प्रक्रिया पृथ्वी के साथ होती है। सूरज से आने वाली किरणों की गर्मी की कुछ मात्रा को पृथ्वी द्वारा सोख लिया जाता है। इस प्रक्रिया में हमारे पर्यावरण में फैली ग्रीन हाउस गैसों का महत्त्वपूर्ण योगदान है।अगर इन गैसों का अस्तित्व हमारे में न होता तो पृथ्वी पर तापमान वर्तमान से काफी कम होता।

ग्रीन हाउस गैसों में सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण गैस कार्बन डाइआक्साइड है, जिसे हम जीवित प्राणी अपने साँस के साथ उत्सर्जित करते हैं। पर्यावरण वैज्ञानिकों का कहना है कि पिछले कुछ वर्षों में पृथ्वी पर कार्बन डाइआक्साइड गैस की मात्रा लगातार बढ़ी है। वैज्ञानिकों द्वारा कार्बन डाइआक्साइड के उत्सर्जन और तापमान वृद्धि में गहरा सम्बन्ध बताया जाता है। कुछ वर्ष पूर्व  एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म आई – ‘द इन्कन्वीनियेंट ट्रुथ’। यह डॉक्यूमेंट्री फिल्म तापमान वृद्धि और कार्बन उत्सर्जन पर केन्द्रित थी। इस फिल्म में मुख्य भूमिका में थे – अमेरिकी उपराष्ट्रपति ‘अल गोरे’ और इस फिल्म का निर्देशन ‘डेविड गुग्न्हेम’ ने किया था। इस फिल्म में ग्लोबल वार्मिंग को एक विभीषिका की तरह दर्शाया गया, जिसका प्रमुख कारण मानव गतिविधि जनित कार्बन डाइआॅक्साइड गैस माना गया। इस फिल्म को सम्पूर्ण विश्व में बहुत सराहा गया और फिल्म को सर्वश्रेष्ठ डाॅक्यूमेंट्री का आॅस्कर एवार्ड भी मिला। यद्यपि ग्लोबल वार्मिंग पर वैज्ञानिकों द्वारा शोध कार्य जारी है, मगर मान्यता यह है कि पृथ्वी पर हो रहे तापमान वृद्धि के लिये जिम्मेदार कार्बन उत्सर्जन है जोकि मानव गतिविधि जनित है। इसका प्रभाव विश्व के राजनीतिक घटनाक्रम पर भी पड़ रहा है। सन 1988 में ‘जलवायु परिवर्तन पर अन्तरशासकीय दल’ किया गया था। सन 2007 में इस अन्तरशासकीय दल और तत्कालीन अमेरिकी उपराष्ट्रपति ‘अल गोरे’ को शांति का नोबल पुरस्कार दिया गया।

भारत में मौसमों का अति की पराकाष्ठा तक जाना हमेशा से रहा है। भारत में हमेशा भीषण गर्मी और जबरदस्त बारिश होती रही है। ठंड भी खूब पड़ती रही है लेकिन मौसम की तमाम अतियों के बावजूद उसमें हमेशा संतुलन रहा है। हमारी जीवनशैली से लेकर हमारी सोच-विचार तक का इन मौसमों के अनुकूल रहा है।  ग्लोबल वार्मिंग के आलावा  हम बड़े पैमाने पर औद्योगीकरण के जरिये धरती के पर्यावरणीय संतुलन और उसके पारिस्थितिकीय संतुलन को तो बिगाड़ ही रहे हैं, अपनी जीवनशैली और सोच-विचार को भी मौसमों के अनुरूप बनाए रखने की बजाय उनके विरोध में खड़ा कर रहे हैं। बस्तियों को कंक्रीट के जंगलों में तब्दील करके और अपने खानपान में पश्चिम में अंधानुकरण करके हमें भूगोल के साथ-साथ सामाजिक रूप से भी भीषण आग उगलती गर्मी को आमंत्रित कर रहे हैं । एक जमाना था जब लोग भयानक लू के दिनों में भी नीम और बरगद के पेड़ों के नीचे पना और शर्बत पीकर सहजता से उसे झेल लेते थे लेकिन आज हमने घरों को ईंट और सीमेंट का घोसला बनाकर उसे इस कदर हवा-पानी से मरहूम कर दिया है कि बिना एसी के यहां गुजारा ही सम्भव नहीं है। एसी ने नई किस्म की समस्याएं पैदा की हैं। एक आदमी जब एसी का आनंद लेता है तो 12 लोग एसी से निकलने वाली गर्मी को भुगतते हैं और पूरी दुनिया उस एसी से पैदा होने वाली क्लोरोफ्लोरोकार्बन की भुक्तभोगी बनती है। पूरी दुनियाभर में तेल की खपत बढ़ रही है, सड़कों पर वाहन विषाक्त धुआं उगल रहे हैं।

अब सवाल उठना वाजिब है कि प्राकृतिक परिवर्तनों से जूझने के लिए क्या कदम उठाए गए, कहीं ऊंचे शैल शिखरों पर ग्लेशियर धीरे-धीरे खत्म हो रहे हैं तो कहीं रेगिस्तानी अरब देशों  से सर्दियों में बर्फ पड़ने की खबर आ जाती है। कहीं वर्षा के मौसम में विदर्भ सूखा रह जाता है तो कहीं वर्षों की बादल तोड़ बारिश से इंसान कांपने लगता है। मगर क्या इसे प्रकृति का भी आज के बदलते इंसान के समान ही जल्दबाजी का स्वभाव मान लिया जाए। मौसम वैज्ञानिक कह रहे हैं कि वर्षा का अर्थ यह नहीं है कि गर्मी कम पड़ेगी। गर्मी पड़ेगी मगर वह तौबा बुलाने वाली होगी।  वास्तविकता यह भी है कि हमारे यहां मौसम कैसा होगा, इसका निर्णयं सात समुद्र पार के अल तीनो अथवा ला तीनो घटनओं के प्रभाव पर निर्भर करता है। वैसे तो प्रकृति रहस्यों से भरी है, इसके अनेक ऐसे पहलू हैं जो समूची सृष्टि से प्रभावित करते हैं लेकिन उनके पीछे के कारकों की खोज अभी अधूरी है। अधिक गर्मी पड़ने से पानी की कमी हो जाती है। 60 करोड़ से अधिक भारतीय पहले ही पानी की कमी से जूझ रहे हैं, अभी वार्षिक प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता 1588 धन मीटर है, जो आगामी एक दशक तक आधी रह जाएगी। इसके लिए हमें जल संरक्षण को अपनाना होगा।  आज पूरी दुनिया वातावरण परिवर्तन को लेकर चिंता में है। जो भी प्रयास हो रहे हैं वह इसी तथ्य को उजागर करते हैं। प्रकृति के साथ जैसा व्यवहार करोगे वैसा ही पाओगे। मौसम चक्र बदलने से किसानों को बार-बार नुक्सान उठाना पड़ता है आज के तेज भागते इंसान के लिए मौसम का मिज़ाज़ समझने की फुर्सत ही कहां है। प्रकृति भी उसे ऐसा ही जवाब दे तो इसमें हैरानी की क्या बात है। हमें इस समय कोरोना के बढ़ते प्रकोप व आसमान से गिरने वाली आग उगलती गर्मी से एक साथ निपटना हैं ।  

अशोक भाटिया

स्वतंत्र पत्रकार

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