निर्भय पथिक का 41 वें वर्ष में प्रवेश
40 वर्ष हुए पूरे
आज विजयादशमी है।इसी दिन 1984 में निर्भय पथिक दैनिक अखबार का प्रकाशन दादर के श्रीराम इंडस्ट्रियल एस्टेट शुरू हुआ था।तब मुंबई में हिंदी का एक ही अखबार टाइम्स समूह का था। हिंदी का बोलबाला कम था। तभी टाइम्स के हिंदी अखबार में यूनियन की हड़ताल हो गई। उन दिनों यूनियन की हैसियत बड़ी थी।कई धाकड़ यूनियन थे जो जिनकी मुंबई में तूती बोलती थी। हड़ताल लंबी खींच गई,सो हिंदी के पाठक अखबार विहीन हो गए। एक खालीपन आया तो कुछ राष्ट्रीय विचार के लोगों,वेद प्रकाश गोयल,स्वरूप चंद गोयल,सतीश सिन्नरकर और आदर्श रामलीला समिति के सदस्यों ने एक नए अखबार के प्रकाशन की योजना बनाई। विजयादशमी 1984 को हमने दैनिक के रूप में यात्रा शुरू की थी। आज 40 वर्ष बीत गया।
चार दशकों की इस यात्रा में हमने अखबार जगत और पत्रकारिता के क्षेत्र में कई परिवर्तन देखे।वह दौर सर्वत्र परिवर्तन का दौर था। आर्थिक उदारीकरण,संगणकीकरण,मोबाइल सहित नए नए आविष्कारों के हम साक्षी रहे।तब देश में राजनीतिक उथल पुथल,मिली जुली सरकारों का दौर था।भारत इन स्थितियों में भी आर्थिक और औद्योगिक प्रगति की ओर बढ़ रहा था।अर्थ व्यवस्था खुली हो गई थी।कारपोरेट का दौर शुरू हो रहा था। इन परिवर्तनों बीच बिना पूंजी वाला अखबार निर्भय पथिक जड़ जमा रहा था।हिंदी अखबार के तौर पर यह अकेला अखबार था जो किसी औद्योगिक घराने का नहीं था।इसकी पूंजी राष्ट्रीय विचार था। इसके सहारे हिंदी में मुंबई की आवाज बनकर निर्भय पथिक निडर,निर्भीक हो चलने लगा।उस समय अखबार का संपादन पुरुषोत्तम मिश्र कर रहे थे।युवा टीम के जरिए अखबार पहले हिंदी भाषिको सहित हर वर्ग में स्थान बनाने लगा। मुकाबला बड़े घरानों के अखबार से था फिर भी यात्रा चल पड़ी।तब देश में उग्रवाद बढ़ रहा था इस क्रम में भारत की पहली महिला प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या उनके सरकारी आवास में कर दी गई।उधर राम जन्मभूमि का आंदोलन जोर पकड़ रहा था।क्षेत्रीय उभार बढ़ रहा था. राजनीतिक अस्थिरता के बीच कुछ अलग विचार भी संगठित हो रहे थे,भारतीय संस्कृति के जागरण के स्वर उभर रहे थे। उन स्वरों को निर्भय पथिक की वाणी मिली।उपेक्षितों की आवाज को मंच मिला और पथिक अपने मार्ग पर बढ़ चला।1989में पथिक ने रूप बदला .इसने सांध्य दैनिक का रूप धरा। इस तरह यह मुंबई का प्रथम सांध्य दैनिक बन गया।इसके स्वरूप को बनाते समय एक छोटा सर्वे किया तो हिंदी सांध्य दैनिक की आवश्यकता का अंदाजा मिला।मुंबई के दफ्तरों,बाजारों और अन्य संस्थानों में काम करने वाले और मुंबई की लोकल से यात्रा करने वाले करीब 40 -पचास लाख लोगों के वर्ग समूह ने इसे स्थान दिया। तब अंग्रेजी और मराठी की सांध्य पत्रकारिता मुंबई में थी।
सांध्य दैनिक के स्वरूप को समझते हुए हमने हिंदी पत्रकारिता को विकसित किया।इसके अधिकांश पाठक कार्यालयों के नौकरी पेशा लोग थे।इस वर्ग में निर्भय पथिक स्थान बनाने लगा।हम शायद कंप्यूटर संस्कृति का प्रारंभ काल के इकलौते हिंदी अखबार थे। सो कारवां चल पड़ा।एक दिक्कत थी हिंदी लिखने वाले पत्रकारों की। लेकिन जहां चाह है राह आसान हो ही जाती है। तब निर्भय पथिक के साथ कुछ मराठी,कन्नड़ भाषी शिक्षक जुड़ने लगे। जो हिंदी प्रेमी थे।कुछ नए सीखने वाले युवक पत्रकार जुड़ने लगे। सूची लंबी है। इस तरह मुंबई के जनजीवन,गली कूचों, ,शिक्षा,समाज,कला,राजनीति आदि की अच्छी खबरें मिलने लगीं।उस पर मेहनत कर खबर ठीक कर प्रकाशित की जाती। इस तरह अखबार जन सामान्य से जुड़ने लगा।लोक प्रियता बढ़ी।हिंदी सांध्य दैनिक का प्रभाव बढ़ने लगा। तो कई और अखबार आ गए।एक समय तो मुंबई में 10 सांध्य दैनिक निकलने लगे।इसके साथ ही साप्ताहिक अखबार भी खड़े हो गए।लगा कि अखबार का उद्योग ही मुंबई में बन गया है। इस तरह निर्भय पथिक , पाठक वर्ग के साथ,पत्रकारों और इस से जुड़े व्यवसाय का सूत्रधार बन गया।देश में उन दिनों संचार क्रांति का दौर शुरू हो गया था। उस हिसाब से अखबार भी उस पर सवार हुआ।अखबारों की संख्या, 1995-96 आते आते आते पत्रकारों की संख्या बढ़ गई।वैसे तो किसी चीज को बदलने में दशक लग जाते हैं,लेकिन यह देखा गया कि 5-5वर्षों में फील्ड के पत्रकारों के चेहरे बदलने लगे। एक ग्रुप के बाद दूसरा नया चेहरा आने लगा,हां यह भी हुआ कि युवतियां भी पत्रकारिता के क्षेत्र में आने लगी।यह एक अच्छा परिवर्तन था। यह मानना पड़ता है कि एक नए अखबार के प्रयोग ने कई संभावनाओं को जन्म दिया। पत्रकार बढ़े,अखबार बढ़े,रोजगार बढ़े,विज्ञापन जगत बढ़ा, हॉकर्स की संख्या बढ़ी।अखबारों की बढ़ती संख्या के कारण मुंबई में कई नए छापा खाने स्थापित हुए.अंततः रोजगार का सृजन हुआ। यह काम निर्भय पथिक के आने के 10 वर्षों के दौरान हुआ।
90 का दशक बहुत सारी गतिविधियों का केंद्र रहा है। 20 सदी के समाप्त होने के बाद मीडिया का नया अवतार आया।इसमें नए चैनल भी आए।सैटेलाइट के जरिए चैनलों का प्रसारण बढ़ा ।आज करीब 900चैनलों का संसार खड़ा हो गया है।इस दशक में भारतीय पत्रकारिता जो कम पूंजी की शिकार थी. इसके साथ बड़े बड़े घराने जुड़ गए।झोला पत्रकार कोर्ट टाई वाले हो गए। आमदनी बढ़ी,लेकिन पत्रकारिता की गंभीरता कम हो गई।खेमे तो पहले भी थे, वे और भी गहन हो चले।21 वीं शताब्दी में तो फर्जी खबरों का चलन भी पत्रकारिता का अंग बन गया।इसमें सोशल मीडिया ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई,मोबाइल के आविष्कार ने सोशल मीडिया का चलन बढ़ा दिया।इसके माध्यम से फेक न्यूज़ परोसा जाने लगा जो आज की पत्रकारिता पर हावी हो गया।पहले गिने चुने पत्रकार होते थे अब देश का हर नागरिक पत्रकार है।सूचनाएं इतनी तेजी से आ रहे हैं कि सुबह की खबर दोपहर आते आते लापता हो जाती है। अब सूचनाओं और जानकारियों का एक भ्रमजाल खड़ा है,पत्रकारों को बड़ी सावधानी से उसके सत्य को परखना पड़ता है,तब खबर मिलती है।
यह सही है कि 21वीं शताब्दी में हिंदी बढ़ी है ,उसके साथ साथ साथ भारतीय भाषाओं का विकास हुआ है।यहां तक कि आंचलिक भाषाओं का बड़ा बाजार तैयार हुआ है ।भोजपुरी के साथ साथ तमिल,तेलुगु,मराठी भाषाओं ने मीडिया में अच्छी पकड़ बनाई है।अब खबरें अंग्रेजी की मोहताज नहीं है। इन 40 वर्षों में प्रादेशिक भाषाओं के विस्तार से हर क्षेत्र जैसे कृषि, चिकित्सा,शिक्षा,तकनीकी के क्षेत्र में जागरूकता आई है ।आज पत्रकारिता तकनीकी सुविधाओं से लैस होकर सेवाएं दे रही हैं।
निर्भय पथिक ने इन चालीस वर्षों में छपाई के बाद ,वेबसाइटों और इलेक्ट्रॉनिक प्रकाशन के माध्यम से विश्व भर में पहुंच रही है। दुख इस बात का है कि सभी पुराने साथी बिछड़ रहे हैं। कुछ मुहं फेर गए हैं। कोरोना में लगी आर्थिक मार से हम अबतक कराह रहे हैं।बहुत कुछ छिन गया है। दस्तावेज सभी नष्ट हो चुके है। इन परिस्थितियों में भी कुछ शुभ चिंतक व पाठक अब भी जुड़े है। सब कुछ सह कर भी निर्भय पथिक अपनी चाल से चल रहा है।अटल जी ने एक बार कहा था निर्भय पथिक हो तो डर किस बात का। उनका भी साथ अब नहीं है लेकिन पथिक का परिवार दृढ़ है अपने ध्येय पथ पर चल रहा है। हम ऐसी संस्कृति के पोषक है जो मानती है कि आक्रामक हुए बिना दृढ़ रहना संभव है; हृदयहीन हुए बिना कुशल होना संभव है; और दिखावटी हुए बिना उत्तम दर्जे का होना संभव है। इसलिए हम चलेंगे पत्रकारिता से देश की सेवा करते रहेंगे। चार दशकों की इस यात्रा में जो साथ हैं उनका बहुत बहुत आभार जो नहीं भी हैं उनका भी धन्यवाद.चरैवेति चरैवेति….
अश्विनी कुमार मिश्र