प्रेमचंद धारा के कहानीकार-अशोक वशिष्ठ का प्रथम कहानी-संग्रह ‘इस जनम का श्राद्ध!’
लेखक, कहानीकार अशोक वशिष्ठ के प्रथम कहानी-संग्रह ‘इस जनम का श्राद्ध!’ को हिंदी कथा-साहित्य के आंचलिक कहानी-संग्रह संसार को समृद्ध करने वाली महत्वपूर्ण कृति कहा जाए तो अतिश्योक्ति न होगी। प्रस्तुत कहानियों में एक अंचल विशेष के मानव-मन की कमजोरियों और आत्म मंथन को बड़ी गहराई से अपने पात्रों के माध्यम से कुशलतापूर्वक अभिव्यक्ति दी गई है। इन कहानियों में ग्राम्य जीवन बड़ी सूक्ष्मता से प्रस्तुत हुआ है।
कहानीकार अशोक वशिष्ठ की कहानियों में भारत का गांव है, प्रकृति है, गांव के बदलते हालात हैं, दम तोड़ते आत्मीय संबंधों का एहसास है, नारी पात्रों की बेबसी है तो उनकी जीवटता भी है। कहानियों की विषय वस्तु में ताजगी है।
कहानियों की भूमिका अपने समय की वरिष्ठ कथाकार सूर्यबाला जी ने लिखी है।उनके अनुसार-
“स्वाभाविकता और सहजता इन कहानियों का प्राण तत्व है। लोक जीवन में रची-पगी, मुहावरों से सजी भाषा में आंचलिकता की नक्काशी बहुत अच्छी बन पड़ी है। आडंबरहीन शिल्प और भाषा का सहज प्रवाह कहानियों की अतिरिक्त विशेषता है जो कहीं भी सायास बलपूर्वक ठूंसी हुई नहीं प्रतीत होती।” कहानीकार ने संग्रह में ‘अपनी बात’ बड़ी बेबाकी से लिखी है। संग्रह का कवर पृष्ठ सहज ही मन को आकर्षित करता है। कहानी संग्रह में कुल ग्यारह कहानियां हैं।
कथा संग्रह की कुछ कहानियां कथानक, पात्र-चयन और शिल्प की दृष्टि से बेजोड़ कहानियां हैं। संग्रह की पहली कहानी ‘कंतो बुआ’ मैं कंतो बुआ के रूप में किस्मत की मार झेलती स्त्री के जीवन के दर्द को सटीक अभिव्यक्ति प्रदान की गयी है। कंतो बुआ की कोख से मरगिल्ला-सा बालक सत्यदेव जन्मा तो जैसे दुःख का पहाड़ टूट गया हो, किन्तु उनका मातृत्व भाव अपने विशिष्ट बालक के प्रति प्रेम में आड़े नहीं आया। बालक को ‘राम जी का प्रसाद’ मानकर उसकी सेवा टहल की गयी। कहानी के आरंभ में संजीव बाबू अपनी बुआ जी से मिलने के लिए जाते समय मिठाई लेकर जाते हैं। बुआ जी मिठाई का एक टुकड़ा दालान की छत पर अज्ञात देवताओं के नाम और रसोई घर में सुलगते चूल्हे में अग्नि देवता को भेंट करती हैं। यहां ईश्वर और पंच तत्व के प्रति बुआ की प्रगाढ़ आस्था का परिचय मिलता है। इतना ही नहीं, बुआ अपने रिश्ते की जेठानी को मिठाई देने जाती हैं जिसमें बुआ की सामाजिकता झलकती है। कहानी में किन्नरों की टोली का सत्यदेव को लेने आने वाला दृश्य बड़ा ह्रदय विदारक है जहां बुआ जी भरे जाड़ों में पसीने से तरबतर हो जाती हैं, किंतु जब बालक सत्यदेव को अपने किसी योग्य न पाकर किन्नरों की टोली भेंट लेकर वापस लौट जाती है, तब कंतो बुआ का सत्यदेव को जिगर से लगाकर जी भर कर रोना, पाठक को रुला देता है। बेटे सत्यदेव और बहू के बीच के संबंधों के बारे में जानने के लिए “चौकन्नी और चिंतित कन्तो बुआ ने शर्म-हया को तिलांजलि देकर एक- दो बार सर्द रातों में बंद दरवाजे की झिरी में से कुछ हलचल, कोई सरसराहट महसूस करने की कोशिश की मगर हर बार निराशा हाथ लगी”, यह प्रसंग कहानी को वांछित ऊंचाई देता है।
‘सूखी तोरई’ कहानी में लेखक ने सूखी तोरई के नाम से प्रसिद्ध रामपरसाद के रूप में ऐसे पात्र को गढा है जो कमोबेश हर गांव में मिल जाता है। यह पात्र सब के सुख-दुख में सबसे पहले पहुंचने वाला, मेहनती, नेता किस्म का, बड़बोला, निर्भीक और सत्यवादी होता है जैसा कि सुखी तोरई है।
‘महमूद की गाय’ कहानी भारत के गांव में चली आ रही गंगा-जमुनी तहजीब में भरोसे को और अधिक मजबूती प्रदान करती है और हिंदू-मुस्लिम सौहार्द को प्रगाढ़ता देते हुए महमूद मियां और उनकी पत्नी के द्वारा गाय के प्रति प्रेम और लगाव को बड़ी ही खूबसूरती से बयान करती है। गांव में कभी सौहार्दपूर्ण माहौल हुआ करता था। सब आपस में चाचा, ताऊ, बाबा दादी, अम्मा, भैया, भौजी के रिश्ते में बंधे थे। हिंदू लड़के उर्दू के जानकारों से अलिफ-बे सीखते। राम-राम का जवाब राम-राम से, बंदगी का जवाब बंदगी से दिया जाता। होली-दिवाली पर हिंदू घरों से पकवान की थाली मुसलमानों के घरों में जाती और ईद के दिन बिना पके चावल सेवई और बूरा हिंदुओं के घरों में पहुंचते। मुसलमान दिवाली तो न मनाते मगर होली पर हिंदू मुसलमान में फर्क करना मुश्किल हो जाता” — जैसे वाक्यों के माध्यम से लेखक ने जाति-धर्मगत एकता की बात को बड़ी सुंदरता से दर्शाया है।
संग्रह की एक अन्य कहानी ‘संतों की लाडो का ब्याह’ में लेखक ने कहानी की केंद्रीय पात्र ‘संतो’ के जीवन की त्रासदी के माध्यम से समाज में आज भी माने जाने वाले बेटा-बेटी के अंतर को मुखरित करते हुए बेटे को जन्म न देने पर एक स्त्री को किन-किन लानत- मलामत से गुजरना पड़ता है; इसे संतो की मां की कथन के द्वारा व्यक्त करते हुए कहा है कि, “बिटिया, औरत और धरती एक जैसी। दोनों माता कहलावें। धरती तपती धूप, बरसते ओले, गिरता पारा, आंधी-तूफान, भूचाल, बाढ़, सूखा सब सह लेवे बिना किसी उज्र के। धरती का सीना चीरें हैं किसान तो भी धरती मैया अन्न का दाना देवे है बदले में। धरती की तरियां धीरज धरियो मेरी लाडो।” आजीवन ससुराल में नारकीय जीवन जीने वाली संतो अपनी दस वर्षीय बेटी के जबरन किए जा रहे विवाह का पुरजोर विरोध करती है।
कहानी ‘इस जन्म का श्राद्ध!’ ग्रामीण समाज में हो रही वृद्धों की अवमानना और तिरस्कार की ओर संकेत करती है। अपने तीन बेटों और उनके परिजनों से तिरस्कृत वृद्ध पंडित जटाशंकर अपने जीवन का अंत करीब जानकर अपनी वसीयत लिखवाते हैं और बंधी-बंधाई लीक से हटकर अपने जीते-जी अपना श्राद्ध कर्म करवाते हैं और सब कार्य पूर्ण हो जाने पर परलोक गमन कर जाते हैं। कहानी ‘यादों के झरोखे’ में लेखक का गांव और अपनी जड़ों से गहरा प्रेम सहज ही प्रस्फुटित हुआ है तो ‘वसूली’ कहानी के माध्यम से रिश्तो में कहीं हम ठगे ना जाएं– इसकी सतर्कता भी दिखाई देती है।
अशोक वशिष्ठ की कहानियों में मुंशी प्रेमचंद जी और उनकी परंपरा के कहानी लेखकों की तरह आदर्श का निर्वहन दिखता है। कहानियों के मुख्य पात्रों में कई महिलाएं हैं, जो केवल ग्रामीण ही नहीं बल्कि भारतीय संघर्षशील नारी के विविध रूपों के हमें दर्शन करवाती हैं, जिनके प्रति लेखक का भाव बहुत ही सहानुभूति पूर्ण बन पड़ा है। कहानियों में पात्र चयन लेखक ने बड़ी सूझबूझ के साथ किया है और हर पात्र के चरित्र से न्याय भी किया है। कहानियों के पात्र पाठक के मानस पटल पर एक गहरी छाप छोड़ते हैं। कहानियों में संवाद कहानी की मांग के अनुकूल हैं। अपने प्रथम कहानी-संग्रह के माध्यम से ग्रामीण कहानी जगत में अपनी पहचान दर्ज करवाने के लिए कहानीकार अशोक वशिष्ठ का अभिनंदन।
आनंद शर्मा,मुंबई