सियासत की नई चाल जनगणना
जातिगत गणना के सिद्धांत पर चलती कांग्रेस की नई सियासत आगामी चुनावों की कसौटी के लिए तैयार है। जाहिर है जाति के आधार पर जब लोग गिने जाएंगे, तो चुनाव की किश्तियां भी दरिया बदल लेंगी। और सियासत की यह नई चाल का असर दूर तक जा सकता है. राजनीति में जाती जनगणना की आड़ में एक ऐसा खेल शुरू किया जा रहा है जो देश की आजादी से लेकर अबतक ठंडे बस्ते में था. कांग्रेस और कुछ विपक्षी दलों ने एक जीन को निकाल कर देश के सामाजिक पटल पर ला खड़ा किया है और इस नए प्रयोग से अपने प्रबल प्रतिद्वदी नरेंद्र मोदी सरकार को चकनाचूर करने की मंशा है. इसमें जनहित से ज्यादा एक सोच है जिसमें सियासत को अपना चरित्र बदलना पड़ेगा। हालांकि इसके खतरे हैं और सामाजिक विद्रूपता के आईनों में नए दरकनों की आहट भी.इस से यह जरूर हुआ है कि सियासत के ठहरे हुए पानी में नई हलचल पैदा तो जरूर कर दिया है.आश्चर्य यह है कि आज के सियासत दानों ने समाज को बांट कर उसकी चीर फाड़ का रास्ता तो खोज लिया लेकिन उसके उपचार की कोई मंशा नजर नहीं आती,क्योंकि मकसद सिर्फ सत्ता पर काबिज होना भर है. हालत तो यह है कि सियासत ने तो नया रास्ता चुनकर जनगणना को समाज में जोत दिया, लेकिन देश के लिए और देश की प्राथमिकताओं के लिए समाज के पीछे रह गए वर्ग के लिए कोई सोच सामने नहीं रखा जा रहा है. कहना न होगा कि आज भी राष्ट्रीय संसाधनों का दोहन, आरक्षण की मुहिम में कुछ जातियों के जरिए मतपेटियां भरी जा रही है। आरक्षण में अगर सामाजिक सिक्के के दो पहलू हैं, तो चांदी के वर्क के ठीक नीचे तथाकथित उच्च जातियों के अति दरिद्र लोग भी हैं। जो आरक्षण का दंश झेल कर दरिद्र होते जा रहे हैं. इसलिएयह दिख रहा है कि आरक्षण और जातिगत चयन में राष्ट्रीय योजनाओं, संकल्पों और संसाधनों की दरियादिली के बावजूद आर्थिक तौर पर विपन्नता तो दूर नहीं हो रही,असमानता बढ़ रही है.
जातिगत जनगणना का आधार, दरअसल सियासी अखाड़े के सारे नियम और पहलवान बदल सकती है। अभी इस सवाल का जवाब मिलना बाकी है कि एक अकेली जातीय जनगणना किस तरह समूचे समाज को न्याय दिला सकती है, जबकि सामाजिक दर्पण में देखेंगे तो राष्ट्रीय संसाधनों के आबंटन में आर्थिक पिछड़ेपन की एक महाजाति पैदा हो गई है। देश अब चुनाव के पांव पर चलता है और राजनीतिक पार्टियां इसी अवधारणा में खुद को साध रही हैं। यह वजह है कि विपक्ष सत्ता पक्ष को मात देने के लिए यह चाल रहा है। वह इस बात से अनभिज्ञ है कि इसके परिणाम उसे सत्ता तक नहीं पहुंच पाए तो समाज में नए मंडल का आधार जन्म ले सकता है जिसका ऊंट किस करवट बैठेगा उसका आभास किसी को नहीं है क्योंकि सत्ता युद्ध में सभी मदांध हैं. जातिगत गणना अगर होती है, तो क्षेत्रीय राजनीति में बदलाव आ सकता है। ऐसे में क्या नेताओं से बड़े जातीय समीकरण हो जाएंगे और तब हम समाज को अलग-अलग खाकों की सियासत में पहचानेंगे।बहरहाल जिस प्रतिनिधित्व की लोकतंत्र को जरूरत है, उससे हटकर हम जातियों के माल्यार्पण में तब तक लोकतांत्रिक आडंबर रचते रहेंगे, जब तक सियासत केवल चुनाव की जीत-हार पर ही देश को विभाजित होते हुए देखना चाहेगी।