कहानी मूंछों की
शास्त्री सुरेन्द्र दुबे अनुज जौनपुरी की ✒️ कलम से
गबरू जवान हो मान गुरु जी,
चरणों में शीश झुकाता हूं।
मूंछों की कुछ बात पुरानी,
मैं गाकर उसे सुनाता हूं।।
मान और सम्मान शान की,
पहचान ए मूंछें होती थी।
जीत – हार पर कट तन जाती,
पिता मरण पर खोती थी।।
अब बात पुरानी हो गई सज्जन,
सच झूठ कहानी सी हो गई।
जब शान बंया करतीं थीं मूंछें,
दे ताव कहानी अब हो गई।।
जितनी लंबी मूंछें होती ,
पूछें उतनी ही लंबी होती थी।
गलमूंछों की थी शान अलहदा,
तलवार धार सुन्दर लगतीं थी।।
अब नजर घुमाकर जहां भी देखो,
वहां मुछकटवा दिख जाएंगे।
शीश पर मूर्गे की कलगी वाले,
नवयुवक नजरों में आयेंगे।।
मूंछ और दाढ़ी वाली
नारी की गजब कहानी है,
यह अभिशाप है या वरदान है गुरूवर?
नारी के लिए तो परेशानी है।।
इक काल था जब मूंछों का बाल,
हीरा मर्दों का कहलाता था।
बिक करके जो बाजारों में,
अपनी कीमत बतलाता था।।
मूंछों का बाल था बड़ा कीमती,
तब मर्दानगी को दर्शाता था।
खुद को मिटा देता था परन्तु,
मूंछों को न कटने देता था।।
मूंछों की अब पूंछ नहीं,
न अब मूंछ बिके बाजारों में।
निगल चुका है अब फैशन मूंछें,
शायद मिल जाएं हजारों में।।
हम संस्कार से च्युत हो गये,
पीढ़ी में बांटना भूल ही गये।
पाश्चात्य संस्कृति और आडम्बर में,
अपनी संस्कृति को तोड़ दिये।।