Home विविधा ● होरी के दोहे :☆ अशोक वशिष्ठ

● होरी के दोहे :☆ अशोक वशिष्ठ

by zadmin
vashishth

● होरी के दोहे 


धूप फागुनी हो गई  , बदन सुहाती छाँव ।

पीली चूनर ओढ़ के , झूम उठा है गाँव  ।।

गुलमोहर खिलने लगा,पुलकित हुआ पलाश।

लगी विहसने मालती, आ पहुँचा मधुमास।।


आम्र-मंजरी लग गयी, उत अमवा के बाग।

कुहू-कुहू कोयल करे, छेड़ हिंडोला राग ।।


महुआ मादक हो उठा, महकन लगा समीर।

भँवरे गुनगुन कर रहे, मनवा हुआ अधीर।। 

आया फागुन जबहि से, मधुवन हुआ निहाल।

तैयारी करने लगे , केसर और गुलाल ।।

कोयल लग गयी कूकने, भँवरा गाता राग।

लगा गूँजने हर गली, तालबद्ध हो फाग ।।

ढोल-मंजीरा बज उठे, उड़े अबीर-गुलाल।

आज जिसे भी रँग लगे, होगा मालामाल।।


होली आयी जबहि से, मधुवन हुआ निहाल।

अठखेली करने लगे, रंग-अबीर-गुलाल।।

बृज में बाजी बाँसुरी , बही बसंती ब्यार ।

रंग बहाना बन गया , बरस रहा है प्यार ।।


राधा रानी खेलतीं ,   फाग कन्हैया संग ।

ग्वाल-बाल मस्ती करें , बाजें ढोल-मृदंग।।

रंग जमाने लग गए , केसर और अबीर ।

जिस पर पिचकारी चली, वह हो गया अमीर।।


रंग – बिरंगे हो गये , गोरी जी के गाल ।

मन की मानी हो गई, रहा न कोउ मलाल।।

ऐसी होली खेलिए ,   होवें लालों लाल।

जीवन की बगिया बने, टेसू और गुलाल।।


आज फेंक ही दीजिए, मन का सभी गुबार।

घृणा-द्वेष सब दूर हों, शेष रहे बस प्यार।।

☆ अशोक वशिष्ठ

(☆फागुन में गाया जाने वाला राग-हिंडोल)

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