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हिंदी राष्ट्रभाषा या राजभाषा की दुविधा कब हटेगी ?

by zadmin

हिंदी राष्ट्रभाषा या राजभाषा की दुविधा कब हटेगी ?

 डॉ. मोतीलाल गुप्ता ‘आदित्य’

भारत में जब भी भाषा की बात होती है तो सबसे पहले राष्ट्रभाषा और राजभाषा पर बहस प्रारंभ हो जाती है। सभी भारतवासी भली-भांति जानते हैं कि स्वतंत्रता के समय हिंदी में स्वतंत्रता संग्राम के संपर्क की भाषा की भूमिका अदा की थी और राष्ट्रपिता महात्मा गांधी विनोबा भावे, सरोजिनी नायडू, आचार्य कृपलानी, सुब्रमण्यम भारती, रवींद्रनाथ टैगोर सहित विभिन्न स्वतंत्रता सेनानियों और विद्वानों ने हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकारते हुए इसे भारत की राष्ट्रभाषा की रूप में विकसित करने का भरपूर प्रयास किया था। उस समय देशवासियों की यह भावना थी कि स्वाधीनता के पश्चात देश का काम देश की भाषाओं में चले और अंग्रेजी को भी अंग्रेजी की तरह विदा किया जाए।

लेकिन स्वतंत्रता के पश्चात जब भारत की संविधान निर्माण का कार्य प्रारंभ हुआ तो प्रारंभ में राष्ट्रभाषा की बात हुई लेकिन संविधान बनते-बनते काफी जद्दोजहद और राजनीतिक वाद विवाद चला, हिंदी और हिंदुस्तानी को ले कर भी काफी खींचतान हुई। अंत में हिंदी को भारत की राजभाषा बनाया गया। तमाम बहस से यह भी निकल कर आया कि संविधान सभा में एक वर्ग ऐसा भी था जो कि अंग्रेजी को बनाए रखना चाहता था। इनमें उन लोगों की प्रमुख भूमिका थी जोकि इंग्लैंड से पढ़ कर आए हुए विलायती बाबू थे, जिनमें तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू सर्वोपरि थे।

लेकिन उस समय जन-भावनाएं प्रबल रूप से स्वाधीनता के साथ-साथ स्वभाषा के पक्ष में थीं इसलिए उन्हें सीधे-सीधे नकारना संभव नहीं था। इसलिए अंततः जब संविधान बनकर तैयार हुआ तो हिंदी को भारत की राष्ट्रभाषा के बजाय राजभाषा बनाया गया। इसी प्रकार राज्यों में भी राज्यों की भाषाओं को राज्यों की राजभाषा बनाने के उपबंध किए गए। आम जनता को तो यही समझ में आया कि राष्ट्रभाषा और राजभाषा शायद एक ही बात है। इसलिए आज भी यदि किसी सामान्य व्यक्ति से यह पूछा जाए कि भारत की राष्ट्रभाषा क्या है तो वह हिंदी को ही बताएगा।

आज भी हिंदी के कार्य से जुड़े लोगों के बीच राजभाषा और राष्ट्रभाषा को लेकर अनेक शंकाएँ हैं। हिंदी और राजभाषा के कामकाज से जुड़े अनेक वरिष्ठ लोगों को भी मैंने अक्सर यह कहते सुना है – ‘अरे भाई क्या फर्क पड़ता है, आप हिंदी को राजभाषा कहें या राष्ट्रभाषा करें बात तो एक ही है।’ लेकिन वास्तव में दोनों में जमीन आसमान का अंतर है। भारत संघ की राजभाषा की ही नहीं बल्कि राज्यों की राजभाषा की भी है। इसलिए दोनों का अंतर समझने की आवश्यकता है।

राजभाषा शब्द का अंग्रेजी में समानार्थी शब्द है ऑफिशियल लैंग्वेज अर्थात अधिकारिक भाषा। संघ की राजभाषा का अर्थ है संघ के कामकाज की अधिकारिक भाषा। वह भाषा जिसमें संघ का कामकाज किया जा सकता है ?  इसमें ऐसा कुछ भी नहीं है कि राष्ट्रीय स्तर पर संपर्क के लिए हिंदी का प्रयोग किया जाना है। इस प्रकार भारत की कोई राष्ट्रभाषा या राष्ट्रीय संपर्क भाषा नहीं है। 

इस प्रश्न पर अक्सर विद्वान लोग यह कहकर बात समाप्त कर देते हैं कि जनता तो किसी भी भाषा में संवाद कर सकती है, भाषा तो सरकारी काम के लिए ही तय करनी होती है। यह बात सत्य है, लेकिन अर्धसत्य है।  अब प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि जब कोई भी भाषा राष्ट्रभाषा अर्थात राष्ट्रीय संपर्क की भाषा नहीं है और राज्यों के स्तर पर कोई भी भाषा राज्य-भाषा अर्थात राज्य के स्तर पर संपर्क की भाषा नहीं है तो विभिन्न कानूनों के अंतर्गत जो सूचनाएँ जनता को दी जानी आवश्यक हैं,  भले ही वे शासन के द्वारा हों, किसी निजी संस्था द्वारा हों या किसी व्यक्ति के द्वारा उनकी भाषा क्या होगी ? यदि संविधान और विधान द्वारा राज्य की कोई संपर्क भाषा नहीं,  राष्ट्र की कोई संपर्क भाषा नहीं तो विभिन्न कानूनों के अंतर्गत जनता को उसके हितों की रक्षा के लिए सूचनाएँ प्राप्त करने के अधिकार प्राप्त होते हैं, वे उन्हें कैसे मिल सकते हैं ? क्योंकि भारत की कोई राष्ट्रभाषा नहीं और राज्यों में भारत की भाषाएँ भारत की राजभाषाएँ हैं, वे राज्य की संपर्क भाषा नहीं हैं।

अब यह प्रश्न पूछना भी स्वभाविक है कि जब भारत की कोई भाषा कानूनी रूप से भारत की राष्ट्रभाषा अर्थात राष्ट्रीय संपर्क भाषा नहीं है तो राष्ट्रभाषा की जगह पर किसका कब्जा है ? भारत की राष्ट्रीय संपर्क भाषा क्या है? राज्यों की संपर्क भाषा या राज्य भाषाएं क्या हैं?   इस बात को यूँ समझा जा सकता है कि भारत में अक्सर ऐसा होता है कि कोई जमीन जिसे कोई देखने वाला नहीं, अगर वह खाली पड़ी हो तो उस पर कुछ दबंग किस्म के लोग, अधिकारियों और नेताओं की मिलीभगत से कब्जा कर लेते हैं। कुछ समय पश्चात उनका कब्जा स्थायी हो जाता है। और फिर उन्हें वहां से हटाना असंभव सा हो जाता है। हमारे देश में भाषाओं के साथ भी यही हुआ। भारत में राष्ट्रीय संपर्क भाषा और राज्य संपर्क भाषा की खाली जमीन पर अफसरशाही, राजनीति के समर्थन से अंग्रेजी ने अवैध कब्जा जमा लिया है। अंग्रेजी तो संविधान की अष्टम अनुसूची में भी शामिल नहीं है। संविधान के अनुसार हिंदी भारत संघ की राष्ट्रभाषा या राजभाषा भी नहीं है। नागालैंड को छोड़ दें तो अंग्रेजी किसी राज्य की राज्य भाषा या राजभाषा भी नहीं है। लेकिन स्थिति इसके उलट है। संघ के स्तर पर और राज्यों के स्तर पर संपर्क भाषा की जमीन पर अंग्रेजी का अवैध कब्जा है। स्वतंत्रता के पश्चात पिछले 75 वर्षों से यह कब्जा मजबूत होता गया है। वास्तव में तो अंग्रेजी हिंदी ही नहीं भारत की किसी भी भाषा से बहुत अधिक शक्तिशाली बना दी गई है। संविधान में किसी स्थान पर न होने के बावजूद अंग्रेजी न भारत की बल्कि भारत के हर राज्य के कामकाज की ही नहीं बल्कि कानूनी उद्देश्यों के लिए भी संपर्क भाषा बना दी गई है।

 इसलिए अब विभिन्न कानूनों के अंतर्गत अनिवार्य रूप से दी जाने वाली सूचनाएं आदि निजी कंपनियों, व्यक्तियों आदि द्वारा प्राय: केवल अंग्रेजी में ही दी जाती हैं। शासकीय स्तर पर भी प्रायः स्थिति कोई बहुत अधिक भिन्न नहीं है। राज्यों के स्तर पर या देश के स्तर पर हर जगह अगर कोई भाषा है तो वह केवल अंग्रेजी है। यह किसने या किस-किस ने कब-कब और क्यों किया इस पर अलग से चर्चा हो सकती है, लेकिन यह साक्षात है कि अंग्रेजी को भारत की राजभाषा और राष्ट्रभाषा घोषित किए बिना और राज्यों में अंग्रेजी को वहां की राजभाषा या राज्य भाषा घोषित किए बिना हर जगह उसका कब्जा करवा दिया गया है। इसके लिए अंग्रेजी के पक्ष में तो कानूनी व्यवस्था की गई या फिर भारत की जनता और भारतीय भाषाओं के पक्ष में जो कानूनी व्यवस्था की जानी थी वह नहीं की गई।

कुछ लोग ऐसा भी कहते हैं कि विश्व में ज्यादातर देशों में राष्ट्रभाषा नहीं बल्कि राजभाषा ही है तो भारत में राष्ट्रभाषा क्यों चाहिए। पहली बात तो यह है कि विश्व के अनेक देशों में घोषित राष्ट्रभाषाएँ है। कुछ ऐसे देश भी हैं जिनमें राष्ट्रभाषा और राजभाषा दोनों हैं। और ऐसी देश भी हैं जहां केवल राजभाषा है। यहाँ यह बात भी ध्यान देने वाली है कि जिन देशों में कानूनी रूप से केवल राजभाषा है वहां अधिकांश जनता वही भाषा बोलती है और राष्ट्रभाषा यानी राष्ट्रीय संपर्क भाषा के रूप में भी उसी भाषा का प्रयोग होता है। इसलिए वहाँ अलग से राष्ट्रभाषा बनाने की आवश्यकता ही नहीं। अगर हम इंग्लैंड सहित यूरोप के विभिन्न देशों को ही देखें तो आप पाएंगे कि वहां राष्ट्रीय संपर्क भाषा के रूप में भी उनकी भाषा का ही प्रयोग होता है। लेकिन इस मामले में भारत की स्थिति अन्य तमाम देशों से भिन्न है जहाँ राष्ट्रीय संपर्क भाषा के रूप में किसी भारतीय भाषा के प्रयोग का न तो प्रावधान है और न ही ऐसा होता है। बल्कि इसके विपरीत राष्ट्रीय संपर्क भाषा के रूप में कानूनी रूप से अधिकांशत: है उस भाषा का प्रयोग किया जा रहा है जो भारत की भाषा है ही नहीं।

पिछले दिनों एक कार्यक्रम में अपना संदेश भेजते हुए जापान के जाने-माने विद्वान जो भारत की भाषाएँ जानते हैं, उन्होंने कहा कि भारत संघ और राज्यों में कहने को क्रमशः हिंदी  और राज्यों की भाषाएँ वहां की राजभाषाएं हैं और अंग्रेजी सहराजभाषा है लेकिन सच्चाई इसके उलट है। वास्तव में अंग्रेजी भारत की मुख्य राजभाषा और हिंदी भारत की सहायक राजभाषा है। इसी प्रकार की स्थिति राज्यों में भी है।

भारत की जनता को इसके कई बहुत बड़े नुकसान होते रहे हैं जिसके कारण इनके विभिन्न और राष्ट्रीय स्तर पर संपर्क भाषा न होने से राष्ट्रीय एकता और पारस्परिक संवाद पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। जब राष्ट्र है तो राष्ट्र के लिए राष्ट्रीय स्तर पर कोई संपर्क भाषा न हो यह विश्व में किसी की भी समझ से परे होगा। लेकिन भाषावाद और क्षेत्रवाद की राजनीति ने वोट-बैंक के साथ जुड़कर और अपने स्वार्थ पूर्ति के लिए निरंतर राष्ट्रीय हितों की अनदेखी करते हुए न केवल राष्ट्रभाषा का विरोध किया बल्कि देश की जनता के विभिन्न कानूनी अधिकारों के हनन की भी अनदेखी की है। यहाँ मामला केवल भारत की राष्ट्रभाषा का ही नहीं बल्कि राज्य स्तर पर राज्य संपर्क भाषा अर्थात राज्य की भाषा का भी है।

इस बात को एक उदाहरण से समझा जा सकता है। ग्राहक कानूनों के अंतर्गत यह आवश्यक है कि उपभोक्ताओं को उत्पाद की पैकिंग पर अपेक्षित जानकारियां दी जाएँ। क्योंकि भारत में न तो कोई राष्ट्रभाषा है न ही कोई राज्य भाषा। भारत में विभिन्न कानूनों के अंतर्गत जाने वाली सूचनाओं की भी कोई भाषा निर्धारित नहीं है। इसका परिणाम यह है कि हमें प्राप्त होने वाली प्रायः सभी उत्पादों पर सूचना है अंग्रेजी में दी जाती हैं। इस देश में तो अंग्रेजी किसी की मातृभाषा नहीं, कुछ अंग्रेजीदां आबादी को छोड़कर यहाँ तो कोई अंग्रेज नहीं। इसका परिणाम यह है कि दो चार प्रतिशत अंग्रेजीदां लोगों को छोड़कर भारत की तमाम उपभोक्ताओं को ग्राहक कानूनों के अंतर्गत जानकारी प्राप्त नहीं होती। ऐसा भी कहा जा सकता है कि विभिन्न कानूनों के अंतर्गत जनहित के लिए दी जाने वाली सूचनाओं को पाने का अधिकार केवल उन लोगों का है जो अंग्रेजी में पारंगत हैं। यह मामला केवल ग्राहक कानून का नहीं बल्कि ऐसे अनेक कानून हैं जिनका प्रत्यक्ष-परोक्ष प्रभाव आम नागरिकों पर पड़ता है। तमाम निजी कंपनियों द्वारा किए जाने वाले  अनुबंध और सूचनाएँ अंग्रेजी में दी जाती हैं, जिसके कारण जनता के साथ अनेक प्रकार के धोखाधड़ी होती है, उनका शोषण किया जाता है, उनके साथ अन्याय होता है। यदि मैं किसी कंपनी का शेयरधारक हूँ और मुझे अंग्रेजी नहीं आती है तो कंपनी अधिनियम के अंतर्गत मुझे कोई जानकारी प्राप्त नहीं होती है। क्या विश्व के अन्य किसी देश में इस प्रकार का अन्याय है?

पिछले दिनों इटावा में आयोजित एक कार्यक्रम में मैंने जब ये मुद्दे उठाए तो सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति माननीय कृष्ण मुरारी जी ने कहा ‘समस्या यह है कि भारत की कोई राष्ट्रभाषा नहीं है। इसलिए न्यायमूर्तियों के स्थानांतरण और पदोन्नति तैनाती में भाषा की कठिनाइयां आती हैं। यदि चीन की तरह भारत की कोई राष्ट्रभाषा होती तो यह समस्या न आती।’

आगे चलकर वोटबैंक की राजनीति के अंतर्गत पात्रों और शासन करो की नीति के अनुसार जहाँ एक और भारतीय भाषाओं को परस्पर लड़ाया गया, कई राज्यों में राजनेताओं और स्वार्थी तत्वों द्वारा हिंदी के विरुद्ध वातावरण तैयार किया गया, इससे सब परिचित हैं। आज भी विभिन्न राज्यों में समय-समय पर भाषा के नाम पर बांटने का खेल चलता रहता है। हिंदी भाषी राज्यों में भी आगे चलकर बोलियों को भाषा के समान अष्टम अनुसूची में शामिल करने के लिए किस प्रकार क्षेत्रवाद की राजनीति और पुरस्कारों की होड़ तथा लाभ-लोभ के कारण क्या कुछ नहीं हुआ ?  लेकिन इन सबके अतिरिक्त शायद एक और बात कही न कही छिपी हुई है जो सामने नहीं आती, वह यह है कि अंग्रेजी के साम्राज्य के लिए भारतीय भाषाओं को लड़ाते रहने का षडयंत्र। इसका परिणाम यह है कि भारतीय भाषाएं लड़ रही हैं, अंग्रेजी बढ़ रही है। अंग्रेजी के एकाधिकार के लिए यह बहुत ही आवश्यक और अनुकूल है कि भारतीय भाषाएं परस्पर मिलकर बढ़ने के बजाय परस्पर लड़ती रहें।

इसलिए मैं यह समझता हूं कि देश के किसी भी भाग में वहाँ की जनता को सभी प्रकार की समुचित सूचनाएं प्राप्त हों, उन्हें शोषण से अन्याय से धोखाधड़ी से बचाना हो या उनका समुचित विकास करना हो अथवा उनमें स्वाभिमान भरना हो तो यह आवश्यक है कि राज्यों के स्तर पर राज्य की राजभाषा को राज्य की राज्यभाषा अर्थात राज्य की आधिकारिक संपर्क भाषा बनाया जाए। साथ ही क्योंकि भारतीय संविधान के अनुसार किसी भी राज्य का व्यक्ति किसी भी अन्य राज्य में जाकर शिक्षा ग्रहण कर सकता है कामकाज कर सकता है। भारत सरकार और उसके अंतर्गत आने वाले बैंकों कंपनी आदि के कार्मिकों का विभिन्न प्रदेशों में स्थानांतरण होता रहता है। निजी कंपनियां भी समय-समय पर अपने कार्मिकों की अलग-अलग प्रदेशों में तैनाती व स्थानांतरण करती रहती हैं । इन सबके लिए बार-बार अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग भाषाएं सीखना व्यवहारिक व संभव नहीं है। इसलिए वे सूचनाएं सभी को प्राप्त होती रहें इसके लिए यह भी आवश्यक है कि राष्ट्रीय स्तर पर राष्ट्रभाषा अर्थात राष्ट्रीय संपर्क भाषा बनाई जाए। कहने का आशय यह है कि सरकारी क्षेत्र हो या निजी क्षेत्र विभिन्न कानूनों के अंतर्गत दी जाने वाली सूचनाएं अनिवार्य है राज्य और संघ की भाषा में दी जानी चाहिए। राष्ट्रीय संपर्क भाषा को राष्ट्रभाषा कहा जाए या कुछ और यह कोई बड़ा मुद्दा नहीं है। मुद्दा अंग्रेजी के विरोध का नहीं बल्कि अंग्रेजी द्वारा भारतीय भाषाओं की जमीन पर कब्जे को छुड़ाने का और उस पर भारतीय जनता को उनके अधिकार दिए जाने के लिए भारतीय भाषाओं को स्थापित करने का है।  

सच तो यह है कि भारत में राज्यों के स्तर पर या देश के स्तर पर शासन-प्रशासन के स्तर पर, संघ और राज्यों के बीच या न्याय के स्तर पर अथवा देश के सभी नागरिकों को राज्यों में अथवा राष्ट्र के स्तर पर कोई सूचना दी जानी हो तो अंग्रेजी भाषा के माध्यम से कहीं कोई कठिनाई नहीं है लेकिन ऐसी स्थिति भारत की किसी भी भाषा की नहीं है। इसलिए यह कहना अनुचित न होगा कि भारत संघ और भारत के सभी राज्यों की अघोषित राजभाषा और राष्ट्र व राज्यों की संपर्क भाषा अंग्रेजी है।

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