12 जनवरी युवा दिवस पर विशेष
खेतड़ी में मिली थी स्वामी विवेकानन्द को वैश्विक पहचान
रमेश सर्राफ धमोरा
राजस्थान के झुंझुनू जिले के खेतड़ी नरेश राजा अजीतसिंह एक धार्मिक व आध्यात्मिक प्रवृत्ति वाले शासक थे। गर्मी में राजा अजीतसिंह माऊन्ट आबू स्थित अपने खेतड़ी महल में ठहरे हुये थे। उसी दौरान 4 जून 1891 को युवा सन्यासी विवेकानन्द से उनकी पहली बार मुलाकात हुई। इस मुलाकात से अजीतसिंह उस युवा सन्यासी से इतने प्रभावित हुए कि उन्होने उस युवा सन्यासी को अपना गुरू बना लिया। तथा अपने साथ खेतड़ी चलने का आग्रह किया जिसे स्वामीजी ठुकरा नहीं सके। इस प्रकार स्वामी विवेकानन्द 7 अगस्त 1891 को पहली बार खेतड़ी आये। खेतड़ी में विवेकानन्द जी 27 अक्टूबर 1891 तक रहे। खेतड़ी प्रवास के दौरान स्वामीजी प्रतिदिन राजा अजीतसिंह से आध्यात्मिकता पर चर्चा करते थे।
स्वामीजी ने राजा अजीतसिंह को आधुनिक विज्ञान के महत्व को समझाया। खेतड़ी में ही स्वामी विवेकानन्द ने राजपण्डित नारायणदास शास्त्री के सहयोग से पाणिनी का ’अष्टाध्यायी’ व पातंजलि का ’महाभाष्याधायी’ का अध्ययन किया। स्वामीजी ने व्याकरणाचार्य और पाण्डित्य के लिए विख्यात नारायणदास शास्त्री को लिखे पत्रों में उन्हे मेरे गुरु कहकर सम्बोधित किया था।
अमेरिका जाने से पूर्व 21 अप्रेल 1893 को स्वामीजी दूसरी बार खेतड़ी पहुंचे। स्वामी जी इस दौरान 10 मई 1893 तक खेतड़ी में ठहरे। यह स्वामी जी की दूसरी खेतड़ी यात्रा थी। इसी दौरान एक दिन राजा अजीत सिंह व स्वामीजी फतेहविलास महल में बैठे शास्त्र चर्चा कर रहे थे। तभी राज्य की नर्तकियों ने वहां आकर गायन वादन का अनुरोध किया। इस पर सन्यासी होने के नाते स्वामीजी उठकर जाने लगे तो नर्तकियों की दल नायिका मैनाबाई ने स्वामी जी से आग्रह किया कि स्वामीजी आप भी विराजें मैं यहां भजन सुनाउंगी। इस पर स्वामीजी बैठ गये। नर्तकी मैनाबाई ने महाकवि सूरदास रचित प्रसिद्ध भजन ’’प्रभू मोरे अवगुण चित न धरो, समदरसी है नाम तिहारो चाहे तो पार करो’ सुनाया तो स्वामीजी की आंखों में आंसुओं की धारा बह निकली। उन्होंने उस पतिता नारी को ’ ज्ञानदायिनी मां ’ कहकर सम्बोधित किया तथा कहा कि आपने आज मेरी आंखें खोल दी हैं।
इस भजन को सुनकर ही स्वामीजी सन्यासोन्मुखी हुए। 10 मई 1893 को स्वामजी मात्र 28 वर्ष की अल्पायु में खेतड़ी से अमेरिका जाने को प्रस्थान किया। महाराजा अजीतसिंह के आर्थिक सहयोग से ही स्वामी विवेकानन्द अमेरिका के शिकागो शहर में आयोजित विश्वधर्म सम्मेलन में शामिल हो वेदान्त की पताका फहराकर भारत को विश्व धर्मगुरु का सम्मान दिलाया। अमेरिका जाते वक्त खेतड़ी नरेश राजा अजीत सिंह ने अपने मुंशी जगमोहन लाल व अन्य कर्मचारियों को बम्बई तक स्वामी जी की यात्रा की तैयारियों व व्यवस्था करने के लिये स्वामी जी के साथ भेजा था।
इस बात की बहुत कम लोगों को जानकारी है कि स्वामीजी का ’’स्वामी विवेकानन्द’’ नाम भी राजा अजीतसिंह ने रखा था। इससे पूर्व स्वामीजी का अपना नाम विविदिषानन्द था। शिकागो जाने से पूर्व राजा अजीतसिंह ने स्वामीजी से कहा आपका नाम बड़ा कठिन है। उसका अर्थ नहीं समझा जा सकता है। उसी दिन राजा अजीतसिंह ने उनके सिर पर भगवा साफा बांधा व भगवा चोगा पहना कर नया वेश व नया नाम स्वामी विवेकानन्द प्रदान किया। जिसे स्वामीजी ने जीवन पर्यन्त धारण किया। आज सभी उन्हें राजा अजीतसिंह द्वारा प्रदत्त स्वामी विवेकानन्द नाम से ही जानते हैं।
शिकागो में हिन्दू धर्म की पताका फहराकर स्वामीजी विश्व भ्रमण करते हुए 1897 में जब भारत लौटे तो 17 दिसम्बर 1897 को खेतड़ी नरेश ने स्वामीजी के सम्मान में 12 मील दूर जाकर उनका स्वागत किया व भव्य गाजे-बाजे के साथ खेतड़ी लेकर आये। उस वक्त स्वामी जी को सम्मान स्वरूप खेतड़ी दरबार के सभी ओहदेदारों ने दो-दो सिक्के भेंट किये व खेतड़ी नरेश ने तीन हजार सिक्के भेंट कर दरबार हाल में स्वामी जी का स्वागत किया। उनके स्वागत में पूरे खेतड़ी में चालीस मण (सोलह सौ किलो) देशी घी के दीपक जलवाए थे। इससे भोपालगढ़, फतेहसिंह महल, जयनिवास महल के साथ पूरा शहर खेतड़ी जगमगा उठा था।
20 दिसम्बर 1897 को खेतड़ी के पन्नालाल शाह तालाब पर प्रीतिभोज देकर स्वामी जी का भव्य स्वागत किया गया था। शाही भोज में उस वक्त खेतड़ी ठिकाना के पांच हजार लोगों ने भाग लिया था। उसी समारोह में स्वामी विवेकानन्द जी ने खेतड़ी में सावजनिक रूप से भाषण दिया। जिसे सुनने हजारों की संख्या में लोग उमड़ पड़े थे। उस भाषण को सुनने वालों में खेतड़ी नरेश अजीत सिंह के साथ काफी संख्या में विदेशी राजनयिक भी शामिल हुये थे। 21 दिसम्बर 1897 को स्वामीजी खेतड़ी से प्रस्थान कर गये। यह स्वामीजी का अन्तिम खेतड़ी यात्रा थी।
स्वामी विवेकानन्द जी ने एक स्थान पर स्वंय स्वीकार किया था कि यदि खेतड़ी के राजा अजीत सिंह जी से उनकी भेंट नही हुयी होती तो भारत की उन्नति के लिये उनके द्वारा जो थोड़ा बहुत प्रयास किया गया उसे वे कभी नहीं कर पाते। स्वामी जी राजा अजीत सिंह को समय-समय पर पत्र लिखकर जनहित कार्य जारी रखने की प्रेरण देते रहते थे। स्वामी विवेकानन्द जी ने जहां राजा अजीत सिंह को खगोल विज्ञान की शिक्षा दी थी। वहीं उन्होने खेतड़ी के संस्कृत विद्यालय में अष्ठाध्यायी ग्रंथो का अध्ययन भी किया था। स्वामी विवेकानन्द जी के कहने पर ही राजा अजीत सिंह ने खेतड़ी में शिक्षा के प्रसार के लिये जयसिंह स्कूल की स्थापना की थी।
राजा अजीतसिंह और स्वामी विवेकानन्द के अटूट सम्बन्धों की अनेक कथाएं आज भी खेतड़ी के लोगों की जुबान पर सहज ही सुनने को मिल जाती है। स्वामीजी का मानना था कि यदि राजा अजीतसिंह नहीं मिलते तो उनका शिकागो जाना संभव नहीं होता। स्वामी जी ने माना था कि राजा अजीत सिंह ही उनके जीवन में एकमात्र मित्र थे। स्वामी जी का जन्म 12 जनवरी 1863 में व मृत्यु 4 जुलाई 1902 को हुयी थी। इसी तरह राजा अजीतसिंह जी का जन्म 10 अक्टूबर 1861 में व मृत्यु 18 जनवरी 1901 को हुयी थी। दोनो का निधन 39 वर्ष की उम्र में हो गया था व दोनो के जन्म व मृत्यु का समय में भी ज्यादा अन्तर नहीं था। इसे महज संयोग नहीं कहा जा सकता है।
स्वामी विवेकानंद जी के जन्मदिन 12 जनवरी को ही राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है। उनका जन्मदिन राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाए जाने का प्रमुख कारण उनका दर्शन, सिद्धांत, आध्यात्मिक विचार और उनके आदर्श हैं। जिनका उन्होंने स्वयं पालन किया और भारत के साथ-साथ अन्य देशों में भी उन्हें स्थापित किया। उनके ये विचार और आदर्श युवाओं में नई शक्ति और ऊर्जा का संचार कर सकते हैं, उनके लिए प्रेरणा का एक श्रेष्ठ स्रोत साबित हो सकते हैं।
स्वामी विवेकानन्द ने रामकृष्ण मिशन नामक सेवा भावी संगठन की स्थापना की थी। जिसकी राजस्थान में पहली शाखा खेतड़ी में 1958 को राजा अजीतसिंह के पौत्र बहादुर सरदार सिंह द्वारा स्वामी जी के ठहरने के स्थान स्वामी विवेकानन्द स्मृति भवन में प्रारम्भ करवायी गयी थी। मिशन द्वारा खेतड़ी में गरीब तथा पिछड़े बालक-बालिकाओं के लिए श्री शारदा शिशु विहार नाम से एक बालवाड़ी, सार्वजनिक पुस्तकालय, वाचनालय एवं एक मातृ सदन तथा शिशु कल्याण केन्द्र भी चलाया जा रहा है। खेतड़ी में रामकृष्ण मिशन द्धारा करोड़ो रुपयों की लागत से स्वामी विवेकानन्द राष्ट्रीय संग्रहालय बनवाया गया है। जो देश का पांचवा व राजस्थान का पहला संग्रहालय है।
रमेश सर्राफ धमोरा
(लेखक राजस्थान सरकार से मान्यता प्राप्त स्वतंत्र पत्रकार है।