उद्धव की राह पर नीतीश
बिहार में हुए सत्ता के खेल में नई बोतल में पुरानी शराब परोसने का काम मुख्यमंत्री नितीश कुमार ने किया है. इसे विश्लेषक द्वारा बहुत बढ़ा-चढ़ा कर प्रस्तुत किया जा रहा है, लेकिन इस राजनीतिक चहलकदमी में नितीश ने अपने पुराने समाजवादी खेमे में जाकर आत्मसंतुष्टि प्राप्त करने की कोशिश की है. इसका राजनीतिक परिणाम दूरगामी असर डालेगा. क्योंकि नितीश कुमार ने जो कदम उठाया है वह मुद्दाविहीन है. इस से पहले नितीश ने लालू यादव की पार्टी से भ्रष्टाचार के मुद्दे पर गठबंधन तोड़ कर एनडीए से हाथ मिला लिया,यह वही खिचड़ी है जो पहले बिहार में राजनितिक अपचन पैदा कर गयी थी.नीतीश कुमार ने जो तर्क दिए वह हास्यास्पद हैं. उन्होंने बीजेपी पर उनकी पार्टी को तोड़ने का दोष लगाया है जो उनकी मनगढंत कहानी लगती है. दरअसल वह एनडीए में निम्न बोध का अनुभव कर रहे थे, क्योंकि बीजेपी ने उन्हें सर पर बैठा लिया था. आज जिन राजद से हाथ मिलाया या फिर उनकी नई सरकार को कांग्रेस,हम व ,कम्युनिस्टों ने समर्थन दिया है वह राजनितिक दृष्टि से अवसरवादिता और अनैतिक कहा जा सकता है. नितीश ने एनडीए के साथ चुनाव लड़ा और मुख्यमंत्री बने थे. और आज इस गठबंधन से मिले जनादेश को धत्ता बता कर नया महागठबंधन बना कर जनता से धोखा किया है. इसका परिणाम नितीश जी को कुछ माह में दिखेगा. यह एक सत्य है कि बिहार में जेपी जी के नेतृत्व में छात्र आंदोलन -सम्पूर्ण क्रांति में बदल गया. यह तब तक बिहार तक ही सिमित था,लेकिन जयप्रकाश बाबू ने ज्योंही मुंबई के शिवाजी पार्क पर अति विशाल रैली की बिहार का आंदोलन ब्यापक होकर पूरे देश में फ़ैल गया. दक्षिण के कुछ राज्यों को छोड़कर जेपी आंदोलन चलता रहा जिसकी परिणति इंदिरा गाँधी द्वारा घोषित आपातकाल से हुआ । तब से देश का राजनीतिक चरित्र जो बदला है वह इंद्रधनुषी हो गया है और कांग्रेस का रंग हर प्रान्त में फींका पड़ गया है.कांग्रेस अपना अस्तित्व बचाने के लिए तरह तरह के हथकंडे अपना रही है लेकिन मामला नहीं बन रहा है. जेपी की चर्चा इसलिए यहां की कि क्योंकि नीतीश कुमार, लालू यादव ,रविशंकर प्रसाद ,आदि आज केबिहार के नेता उसी आंदोलन की उपज हैं. संयोग देखिये कि देश में स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव का उत्सव चल रहा है लेकिन प्रधानमंत्री मोदी के इस राष्ट्रीय यज्ञ में विघ्न उपस्थित करने की साजिश चल रही है. नीतीश ने सरकार बदलने के लिए 9 अगस्त का राष्ट्र्रीय दिन चुना.यह दिन अगस्त क्रांति दिवस के रूप में मनाया जाता है. इस दिन महात्मा गाँधी ने मुंबई के अगस्त क्रांति मैदान से अंग्रेजों के खिलाफ भारत छोडो का मन्त्र फूंका जिसके बाद आजादी की लड़ाई का नया ज्वार फूटा और अंग्रेजों को भारत छोड़ना पड़ा. गौर करें तो जो स्वतंत्रता का आंदोलन चम्पारण, गुजरात, पश्चिम बंगाल सहित हर राज्य में चल रहा था. उसे तीव्रता अगस्त क्रांति मैदान से गाँधी जी की हुंकार से मिली. जय प्रकाश नारायण के सम्पूर्ण क्रांति के बिगुल के बाद देश के इसी पश्चिमी छोर से भारतीय जनता पार्टी के नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था -देश की राजनीति से अँधेरा छंटेगा -कमल खिलेगा।आज उनकी पार्टी देश भर में विजय का परचम फहरा रही है. इसलिए महाराष्ट्र की धरती -मुंबई,से उठे सन्देश परिवर्तनकारी होते हैं. उसी राज्य में आज से ढाई साल पहले एक खेला हुआ. इसमें 2019 में विधान सभा चुनाव के बाद उद्धव ठाकरे की शिव सेना, शरद पवार का राष्ट्रवादी कांग्रेस और सोनिया गाँधी की कांग्रेस ने गठजोड़ कर भाजपा को पटखनी देने के लिए महाविकास आघाडी का गठन किया. इसमें शिव सेना ने भाजपा के साथ चुनाव लड़ा था. दोनों को स्पष्ट बहुमत था लेकिन उद्धव के चहेतों ने उनके मन में मुख्यमंत्री मटेरियल वाला शिगूफा छेड़ दिया,जिस से उद्धव अनैतिक गठबंधन को मजबूर हुए और मुख्यमंत्री बन गए.और इस बेमेल गठबंधन का असर उनके चुने हुए विधायकों की मनः स्थित्ति पर विपरीत पड़ा और शिवसेना में फूट पड़ गयी. इस फूट के लिए नितीश कुमार की तरह विलाप करते हुए भाजपा को राजनीतिक विलेन बनाने की कहानी सुनाई जाने लगी. इस अनैतिक व विचारहीन गठबंधन का खामियाजा आज उद्धव ठाकरे भोग रहे हैं ,जिसमें उनके नेतृत्व की अकर्मण्यता साफ़ झलक रही है. फिर वही मुंबई ने इस रूप में एक राजनीतिक सन्देश दिया कि अनैतिक -विचारहीन गठबंधन आत्मघाती हो जाता है. यह सन्देश देश के सभी राजनीतिक दलों को ध्यान में रखना चाहिए. एक जनादेश के खिलाफ जाने से पार्टी के अंदर ही बगावत के सूर उठते हैं उसका नतीजा उद्धव सरकार के हश्र के रूप में सामने आता है, हालाँकि महाराष्ट्र में जनादेश से विश्वासघात का पहला सबक मिल चुका है अगली सीख 2024 के चुनाव में मिलने की सम्भावना है. इस परिपेक्ष्य में देखें तो नितीश कुमार भी इसी राह पर चल पड़े हैं. आज सत्ता में टिके हुए हैं. लेकिन इसकी आभा में कब बाजी पलट जाए,यह कहना अभी जल्दीबाजी होगी. आज वे बड़े चतुर राजनीतिज्ञ की तरह पत्ता फेंट चुके हैं. इसका अंजाम उनकी ही पार्टी में कोई एकनाथ शिंदे बनकर अब भी दे सकता है. नीतीश यह न भूलें कि उनके विधायक अपनी राजनीतिक साख बचाने के लिए शिंदे की तरह बगावत का झंडा खड़ा नहीं करेंगे. राजनीति आजकल भेड़िया चाल के साथ साथ व्यावसायिक हो गयी है. यही महाराष्ट्र में हुआ जहां 4 -4 बार चुनकर आये विधायकों का अंतर्मन जागा और उन्होंने उद्धव से अलग जाने की राह पकड़ ली.बिहार की घटना से आज विपक्षी खेमे में भारी उत्साह है, लेकिन मोदी ने देश की राजनीति को जिस तरह साध रखा है उसमें कब पांसा पलट जाए ,कहा नहीं जा सकता. राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति चुनाव में ये साफ़ भी हुआ है. यह किसी पार्टी को ख़त्म करने के लिए नहीं हुआ, बल्कि इसके जरिये राजनीति में सिद्धांत और विचारधाराओं को महत्त्व देने का पाठ पढ़ाया गया.अब इसे न मानने वाले भले ही आँख बंद कर लें लेकिन भारतीय राजनीति में क्षेत्रीय पार्टी बनाकर एक परिवार की महत्वाकांक्षा का पोषण करने का तिकड़म यह देश समझ चुका है. खैर बिहार में हुई राजनीतिक कलाबाजी का भविष्य उद्धव की करतूतों का उदाहरण बन सकता है.क्योंकि इतिहास साक्षी है कि इस देश ने पश्चिमी छोर से उठे संदेशों को पहचाना और आत्मसात भी किया है.
अश्विनी कुमार मिश्र