दुनिया के लिए सबक बनता श्रीलंका
स्मृति एस पटनायक,
जब समस्याएं हद से पार हो जाती हैं, तब लोगों के पास और कोई चारा नहीं बचता है। श्रीलंका में यही हुआ, गुस्साए लोग आगे बढ़े और राष्ट्रपति व प्रधानमंत्री के आवासों, दफ्तरों पर कब्जा कर लिया। कितने ऐशो-आराम से उनके राष्ट्रपति रह रहे थे, यह लोगों ने देखा और दुनिया को भी दिखाया। यह विडंबना ही है कि आम लोग पेट्रोल और गैस की लंबी कतारों में घंटों खड़े होने को मजबूर हैं, लेकिन उनके बीच राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे और प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे की परस्पर हंसने-बतियाने की तस्वीरें वायरल हो रही थीं। लोग भड़क गए कि जहां हम जरूरी चीजों के लिए तरस रहे हैं, वहीं हमारे राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को परस्पर हंसी-मजाक सूझ रहा है? राष्ट्रपति व प्रधानमंत्री को आखिर जनता क्यों चुनती है? वैसे श्रीलंका में विरोध प्रदर्शन काफी पहले से चल रहे थे, लेकिन लोग इस बात से खास क्रोधित थे कि महिंदा राजपक्षे ने तो प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया, लेकिन राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे ने इस्तीफा नहीं दिया। पद भी नहीं छोड़ रहे और देश की स्थितियों को भी नहीं सुधार रहे हैं। जनता कितनी नाराज है, इसकी जानकारी राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को थी, शायद इसीलिए परिवार सहित उन्होंने अपना आवास खाली कर दिया था। जब लोग कब्जा करने आए, तब सुरक्षाकर्मियों ने भी रोकने के लिए कुछ खास नहीं किया। लोगों की संख्या इतनी ज्यादा थी कि सरकार घुटने टेकने को मजबूर हो गई। प्रधानमंत्री ने तो मजबूर होकर जल्दबाजी में इस्तीफा दे दिया है और अब चाहते हैं कि अगले प्रधानमंत्री के आने तक वह पद पर बने रहें, ताकि खासकर अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के साथ चल रही बातचीत न रुके। उनका कहना है कि अगर श्रीलंका में कोई सरकार ही नहीं रहेगी, तो मदद लेने के सारे प्रयास एकाएक थम जाएंगे। इधर, राष्ट्रपति गोटाबाया ने तत्काल इस्तीफा नहीं दिया, पर किसी अज्ञात स्थान से उन्होंने सूचना दी है कि वह 13 जुलाई को इस्तीफा देंगे, जबकि लोग तत्काल उनका इस्तीफा चाहते हैं। श्रीलंकाई संसद के अध्यक्ष ने दोनों को फौरन इस्तीफा देकर अगली सर्वदलीय सरकार के गठन के लिए रास्ता साफ करने को कहा है।
राजपक्षे परिवार के पास अब कोई रास्ता नहीं बचा है, श्रीलंका की राजनीति में फिलहाल के लिए उनका समय लद चुका है। उनके परिवार की अगली पीढ़ी को शून्य से शुरुआत करनी पड़ेगी। वर्ष 2009 के बाद से ही यह परिवार श्रीलंका में बहुत लोकप्रिय बना हुआ था, यहां तक कि साल 2019 के चुनाव में इन्हें लोगों ने बहुत पसंद किया था। देश को आतंकवाद से मुक्ति दिलाने का श्रेय महिंदा राजपेक्ष को दिया जाता है। अति-राष्ट्रवादी राजपक्षे से लोगों को बड़ी उम्मीदें थीं। उन्होंने बड़े-बड़े वादे भी किए थे। लोक-लुभावन नीतियों के तहत बड़े पैमाने पर करों में रियायत दी गई थी। लोगों को खुश करने और आत्मनिर्भर देश बनाने की कोशिश में बुनियादी कमियों या सरकार चलाने की औपचारिकताओं को राजपक्षे भूलते जा रहे थे।
दुनिया के लिए श्रीलंका आज सबक है। कृषि और पर्यटन पर यह देश निर्भर रहा है। अत्यधिक उत्साह में ऑर्गेनिक खेती को अनिवार्य बनाया गया। रासायनिक खेती के लिए बाहर से उर्वरक मंगवाने में विदेशी मुद्रा खर्च हो रही थी। देश में ऑर्गेनिक खेती की शुरुआत हुई, लेकिन उत्पादन न निर्यात के योग्य हुआ और न देश की जरूरतें पूरी हुईं। कोरोना महामारी ने पर्यटन क्षेत्र को भी चौपट कर दिया। आय के स्रोत बंद हो गए, तो मदद की जरूरत पड़ी, लेकिन कोई भी देश कितनी मदद कर सकता है? हर किसी की अपनी अर्थव्यवस्था है। जो देश श्रीलंका को पैसे देगा, वह उम्मीद भी करेगा, पर क्या श्रीलंका में लौटाने की क्षमता है?
आज श्रीलंका जिस हालत में पहुंच गया है, अब अचानक उसकी स्थिति नहीं सुधर सकती। गौर करने की बात है कि अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से उसे मदद नहीं मिल रही है, क्योंकि वहां की सरकार मुद्रा कोष के नियमों-निर्देशों का पालन करने के पक्ष में नहीं रही है। मुद्रा कोष धन देता है, लेकिन उसकी कुछ नीतियां भी हैं, जिनके तहत वह धन वापसी सुनिश्चित करना चाहता है। अति-राष्ट्रवाद के चक्कर में श्रीलंका मुद्रा कोष के नियम-कायदों को मानने को तैयार नहीं था। अब मुसीबत में फंसने के बाद वह तैयार हो रहा है और पूरी गंभीरता के साथ उसकी मुद्रा कोष से बातचीत चल रही है। इस बातचीत में बाधा न पड़े, इसके लिए निवर्तमान प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे अगले प्रधानमंत्री तक पद पर बने रहना चाहते हैं। श्रीलंका के लिए यही उचित है कि वह अपनी नीतियों को बदले या व्यावहारिक बनाए, ताकि दुनिया भर से उसके लिए मदद के रास्ते खुलें।
राजपक्षे की नीतियां नाकाम हो गई हैं। इनके समय में भी श्रीलंका ने ऋण लिए हैं, लेकिन उसमें भ्रष्टाचार के आरोप भी लगे हैं। ऐसे कई ऋणों से उसका नुकसान हुआ है। यह भी सबक है कि किसी देश को ऋण बहुत संभलकर पूरी पारदर्शिता के साथ लेने चाहिए।
वहां जल्दी चुनाव करवाना आसान नहीं है, उसके लिए भी पैसे चाहिए। अंतरिम सरकार जो बनेगी, उससे भी तत्काल परिणाम की उम्मीद नहीं करनी चाहिए। आप अभी नीतियां बनाएंगे, तो उनके परिणाम एक-दो साल में दिखेंगे। अब जो भी सरकार बनेगी, उसे मित्र देशों से ही गुहार लगानी पड़ेगी, ताकि उपद्रव या लोगों के सड़कों पर उतरने की मजबूरी खत्म हो। श्रीलंका में जो हुआ है, उस पर दुनिया के बड़े लोकप्रिय नेताओं को भी गौर करना चाहिए। आर्थिक स्थिति अगर बिगड़ जाए, अगर लोगों को अपनी जरूरत भर का सामान भी न मिले, तो राजनीतिक-सांस्कृतिक लोकप्रियता पलक झपकते खत्म हो जाती है।