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खरी-खरी:अशोक वशिष्ठ

by zadmin
vashishth

खरी-खरी
झर-झर-झर-झर झर रहा, आसमान से नीर।

प्यासी धरती की मगर, मिटी न अब तक पीर।।

मिटी न अब तक पीर, नहीं सब जगह बरसा।

पपिहा मोर किसान, और दादुर भी तरसा।

 बरसो जमकर राम , बहें नदि-नाले भर-भर।

प्यासा रहे न कोय, बरसिए बादल झर-झर-झर।।
अशोक वशिष्ठ 

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