क्या ठाकरे मुक्त शिवसेना
का जुगाड़ हो गया है ?
विधान सभा अध्यक्ष के चुनाव से यह पता चल गया है कि महाविकास अघाड़ी ढाई वर्ष में ही टूट गयी और शिव सेना का 25 तक मुख्यम्नत्री बने रहने का दावा भी धुल धूसरित हो गया.विधान सभाध्यक्ष के चुनाव में भाजपा के राहुल नार्वेकर को 287 में से 164 मत मिले,जिसमें भाजपा गठबंधन के 106, शिवसेना के 39 और निर्दलीय 19 विधायकों के वोट का समावेश है। और विजयी हुए.जबकि महाविकास अघाड़ी के उम्मीदवार राजन साल्वी को 107 मत मिले।
इस तरह अघाड़ी में फूट देखने को मिली है क्योंकि समाजवादी पार्टी और ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम ने किसी को वोट नहीं दिया।दोनों तटस्थ रहे.. अध्यक्ष के चुनाव में राष्ट्रवादी कांग्रेस के 7 विधायकों – नवाब मालिक,अनिल देशमुख,दिलीप मोहिते पाटिल, दत्तात्रेय भरणे,बबन शिंदे निलेश लंके,व ,अण्णा बनसोडे ने मतदान नहीं किया. वहीं भाजपा के दो बीमार विधायक लक्ष्मण जगताप और मुक्ता टिळक ,कांग्रेस के 3 विधायक रणजीत कांबले , प्रणति शिंदे व जितेश अंतापुरकर ने मतदान में हिस्सा नहीं लिया. इस तरह कुल 12 विधायक अनुपस्थित रहे.
सूत्रों के अनुसार शिवसेना विधायकों को उद्धव ठाकरे की पकड़ से बाहर लाने के बाद भाजपा की नजर अब लोकसभा सांसदों पर है और भाजपा की तरफ से अभी से दावा किया जाने लगा है कि विधायकों की बगावत के बाद अब शिवसेना के दर्जन भर सांसद भी पार्टी नेतृत्व के संपर्क में हैं।शिवसेना के पास फिलहाल 19 सांसद हैं। 2019 के आम चुनाव में महाराष्ट्र 48 में 41 भाजपा -शिवसेना गठबंधन ने जीते थे। भाजपा ने 23 और शिवसेना ने 18 और दादरा- नगर हवेली की जीत के साथ शिवसेना के पास कुल 19 सांसद हो गये हैं।शिवसेना की सबसे बड़ी मुश्किल ये है कि 19 में ही एक सांसद एकनाथ शिंदे के बेटे श्रीकांत शिंदे भी हैं और उद्धव ठाकरे की तरफ से बुलायी गयी सांसदों की मीटिंग में श्रीकांत शिंदे के अलावा दो और भी नदारद रहे भावना गवली और राजन विचारे। दोनों की अपनी अपनी मजबूरियां हैं। पांचवी बार सांसद बनी भावना गवली प्रवर्तन निदेशालय से सहमी हुई हैं, जबकि राजन विचारे को तो ठाणे में ही रहना है जो एकनाथ शिंदे का इलाका है।ऐसे तो सिर्फ तीन नाम ही सामने आये हैं, लेकिन भाजपा का दावा है कि करीब एक दर्जन सांसद पाला बदलने को तैयार हैं। शिवसेना के पास तीन राज्यसभा सांसद भी हैं। आपको याद होगा तेलुगु देशम पार्टी ने लोकसभा चुनाव से पहले ही एनडीए छोड़ दिया था और 2019 की जीत के बाद भाजपा ने जो फायदे के काम किये उसमें टीडीपी के छह में से चार सांसदों को पार्टी में मिला लेना भी एक महत्वपूर्ण काम था।कहने को तो लोकसभा में शिवसेना के नेता विनायक राउत का दावा है कि विधायकों की बगावत का असर शिवसेना के संसदीय दल पर नहीं पड़ेगा। लेकिन इसका एसिड टेस्ट 18 जुलाई को होने वाले राष्ट्रपति चुनाव में हो जायेगा.
लेकिन असली लड़ाई तो जमीनी स्तर पर होनी है। कब्जे की लड़ाई तो निगमों के चुनाव में देखी जाने वाली है। वैसे भी भाजपा लक्ष्य पंचायत से पार्लियामेंट तक शासन करने की है. एकनाथ शिंदे के जरिये भाजपा पहले मुंबई महानगरपालिका और निगमों के चुनावों में शिवसेना के सफाये की तैयारी कर रही है और फिर उसके बाद पूरा कैडर को अपने पाले में मिलाने की होगी। अपने में मिलाने से फिलहाल मतलब अपने सपोर्ट यानी एकनाथ शिंदे के साथ करने भर से ही है।अभी एक चर्चा राज ठाकरे को भी नयी सरकार में हिस्सेदार बनाने की सुनी जा रही है। अब ये एकनाथ शिंदे की पहल है या फिर भाजपा राज ठाकरे को उनकी लाउडस्पीकर मुहिम के इनाम में कुछ देना चाहती है, देखना होगा। ये तो साफ है कि जो भी होगा भाजपा की मंजूरी के बगैर होने से रहा। ये भी हो सकता है कि राज ठाकरे को साथ लेने के पीछे भी भाजपा की ही आगे की चाल हो। महाराष्ट्र में हिंदुत्व की राजनीति पर पूरी तरह से काबिज होने के लिए भाजपा को सिर्फ उद्धव ठाकरे को खत्म करने भर से काम तो नहीं ही चलने वाला है फिर भला राज ठाकरे को भविष्य के लिए सिरदर्द क्यों बनाये रखा जाये?
महाराष्ट्र के लोगों के बताने भर के लिए भाजपा ने एकनाथ शिंदे के साथ सरकार बनाने के लिए गठबंधन किया है। कोई शक शुबहे वाली बात न हो इसके लिए एकनाथ शिंदे को मुख्यमंत्री भी बना दिया और बाकी बचे खुचे संदेह की स्थिति पैदा न होने देने के लिए देवेंद्र फडणवीस को उनका उपमुख्यमंत्री बना डाला है।पब्लिक सब जानती है, सिवा ऐसी बातों के। आने वाले चुनावों में भी भाजपा , शिवसेना के साथ ही अपने गठबंधन को प्रचारित करने की कोशिश करेगी, लेकिन जब तक चुनाव निशान के विवाद का निपटारा नहीं हो जाता है, खुल कर खेल पाना भाजपा के लिए मुमकिन नहीं होगा।एकनाथ शिंदे के साथ गठबंधन तो नाम भर का ही होगा। आखिर एकनाथ शिंदे को सीटों के बंटवारे में हिस्सेदारी तो शिवसेना के साथ आये विधायकों के नंबर के हिसाब से ही मिलेगी। ऐसे में तो यही होगा कि भाजपा हर इलाके में अपना उम्मीदवार उतारेगी और कुछ सीटें गठबंधन साथी के नाम पर छोड़ेगी। और गठबंधन का ये फॉर्मूला हर चुनाव में लागू होगा। चाहे वो महापालिकाओं के चुनाव हों या फिर 2024 का लोक सभा चुनाव हो या फिर उसके कुछ महीने बाद होने वाला विधानसभा चुनाव। अभी तो ये मान कर चलना होगा कि महाराष्ट्र के उन इलाकों में जहां जहां भी शिवसेना का प्रभाव रहा है, वहां भाजपा के भी हिंदुत्व का चेहरा एकनाथ शिंदे ही होंगे। शिंदे को ही बाल ठाकरे का असली राजनीतिक वारिस के तौर पर पेश किया जाएगा।
एकनाथ शिंदे के जरिये अभी तो शिवसेना के टुकड़े किये गये हैं, आगे कितने टुकड़े होने हैं ये तो बस अंदाजा भर लगाया जा सकता है। महाराष्ट्र को शिवसेना मुक्त बनाने के बाद भी एकनाथ शिंदे भाजपा के काम के हो सकते हैं। उसके लिए शिंदे को आगे भी भाजपा और नेताओं के लिए खुले दिल से मददगार बने रहना होगा – क्योंकि बगैर मददगारों के दुनिया नहीं चलती तो राजनीति कैसे चल सकती है।वैसे शिवसेना मुक्त महाराष्ट्र का मतलब शब्दशः भी नहीं समझा जाना चाहिये। जैसे कांग्रेस मुक्त भारत का मतलब गांधी परिवार से मुक्ति की ख्वाहिश है, शिवसेना को भी ठाकरे मुक्त बनाने तक ही ये मुहिम चलने वाला है। ये भी जरूरी नहीं कि एकनाथ शिंदे को भी भाजपा हिमंता बिस्व सरमा जैसा इस्तेमाल करना चाहे।वैसे भी भाजपा को महाराष्ट्र की राजनीति में प्रमोद महाजन की कमी हमेशा ही महसूस होती रही है। अपने जमाने में प्रमोद महाजन ही शिवसेना के साथ गठबंधन की राजनीति के सूत्रधार हुआ करते थे – एकनाथ शिंदे चाहें तो भाजपा के लिए नये सिरे से प्रमोद महाजन बन सकते हैं। वैसे प्रमोद महाजन तो भाजपा और शिवसेना के गठबंधन तक ही सीमित रहे, एकनाथ शिंदे ने तो संजीवनी बूटी की जगह द्रोणागिरी पर्वत का बड़ा टुकड़ा ही लाकर रख दिया है।
अशोक भाटिया,पत्रकार एवं लेखक