कथा साहित्य का पुनर्पाठ का लोकार्पण
आलोचकों -समीक्षकोंके कारण ही साहित्यिक कृतियों पर पाठक व समाज का ध्यान जाता है-राज्य पाल भगत सिंह कोश्यारी
पथिक संवाददाता
मुंबई :भारत में शास्त्रीय एवं साहित्यिक- मीमांसा की एक लंबी परंपरा है। यह पुस्तक उसी परंपरा को आगे बढ़ाती है।इस तरह के आलोचकों- समीक्षकों के कारण ही साहित्यिक कृतियों पर पाठक एवं समाज का ध्यान जाता है।यदि लेखक, कवि , कथाकार रचना की आत्मा है तो आलोचक उसके शरीर की तरह है, जिसके द्वारा उस कृति के भीतर के अर्थ निकलते हैं।आलोचक कृति की आत्मा का दर्शन कराता है।उसे मूर्तिमान करता है। कथा साहित्य का पुनर्पाठ यही कार्य करती है।यह विचार रविवार को राज्यपाल भगतसिंह कोश्यारी जी ने मुंबई विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के वरिष्ठ प्रोफेसर डाॅ.करुणाशंकर उपाध्याय की सद्यः प्रकाशित पुस्तक ‘ कथा साहित्य का पुनर्पाठ ‘ के लोकार्पण पर व्यक्त किये.इस कार्यक्रम का आयोजन राज भवन में ही किया गया था. श्री कोश्यारी ने अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार प्राप्त करने वाली कथाकार और लेखिका गीतांजलि श्री की पुस्तक रेत समाधि को बुकर पुरस्कार मिलने पर बधाई देते हुए कहा कि आलोचक ही ऐसी कृतियों को चर्चा में लाते हैं और गीतांजलि श्री की उपलब्धि हिंदी ही नहीं संपूर्ण भारतीय साहित्य के लिए गौरव लेकर आई है। संयोगवश इस पुस्तक में भी उनकी चर्चा है।
इस मौके पर अपनी पुस्तक अपनी पुस्तक के बारे में जानकारी देते हुए लेखक डाॅ.करुणाशंकर उपाध्याय ने कहा कि इसमें हिंदी के पहले उपन्यास और पहली कहानी के विवाद को समाप्त करने का प्रयास किया गया है। हमने सन 1870 में प्रकाशित पं.गौरीदत्त के उपन्यास ‘ देवरानी – जेठानी की कहानी ‘ को हिंदी का पहला उपन्यास सिद्ध किया है। इसी तरह अप्रैल 1901 में प्रकाशित माधवराव सप्रे की कहानी ‘ एक टोकरी भर मिट्टी’ को हिंदी की पहली सर्वांगपूर्ण कहानी माना है।इस पुस्तक में हिंदी के सभी महत्वपूर्ण कथाकारों की कहानी एवं उपन्यासों का एक नया पाठ तैयार किया गया है।डाॅ.करुणाशंकर उपाध्याय ने कहा कि आचार्य रामचंद्र शुक्ल की छवि एक न्यायाधीश आलोचक की थी जो डाॅ.नामवर सिंह तक आकर वकील की बन गई। विगत डेढ़ सौ वर्षों में उच्च कोटि का रचनात्मक साहित्य भारत और तीसरी दुनिया के देशों में हो रहा है जबकि सिद्धांत निर्माण का कार्य फ्रांस, जर्मनी, ब्रिटेन और अमेरिका जैसे देशों में हो रहा है।यह हिंदी आलोचक का दायित्व है कि वह हिंदी एवं भारतीय भाषाओं में लिखे जा रहे उच्चकोटि के साहित्य को विश्वस्तरीय विमर्श के केन्द्र में लाए।गीतांजलि श्री को बुकर पुरस्कार मिलने के बाद इस प्रक्रिया को गति मिल सकती है।बावजूद इसके पुरस्कारों के आधार पर साहित्यिकारों के महत्त्व का निर्धारण नहीं हो सकता।
विगत सौ से डेढ़ सौ वर्षों के बीच हिंदी कथा साहित्य में सबसे बड़ा बदलाव यही हुआ है कि प्रसाद, प्रेमचंद और जैनेन्द्र के पात्र अब स्वयं लेखक बनकर आ गए हैं। अब सहानुभूति का स्थान स्वानुभूति ने ले लिया ।इस कारण स्त्री विमर्श, दलित विमर्श, आदिवासी विमर्श, वृद्ध विमर्श और किन्नर विमर्श कथा साहित्य के मुख्य उपजीव्य बन गए हैं।इस पुस्तक में हिंदी कथा साहित्य के आरंभ से लेकर इंदिरा दांगी एवं हरिमृदुल तक के लेखन का विश्लेषण किया गया है। साथ ही, मारीशस के प्रेमचंद कहे जाने वाले अभिमन्यु अनत पर भी एक स्वतंत्र अध्याय है।हमने मराठी के सामाजिक उपन्यास और उर्दू कहानी पर भी एक अध्याय रखा है जिससे पुस्तक की उपयोगिता बढ़ गई है। ‘पुस्तक कथा साहित्य का पुनर्पाठ ‘ का लोकार्पण राजभवन सभागार में सम्पन्न हुआ। इस अवसर पर एकेडेमिस्तान के अध्यक्ष दीपक मुकादम ने अतिथियों का स्वागत किया।सुप्रसिद्ध समाज सेवी और भाजपा प्रवक्ता श्रीमती सुमीतासुमन सिंह आमंत्रित अतिथि के रूप में विशेष रूप से उपस्थित थीं। प्रख्यात चिंतक वीरेंद्र याज्ञिक ने सूत्र- संचालन और ओमप्रकाश तिवारी ने उपस्थित अतिथियों का आभार माना।इस अवसर पर राजभवन के अधिकारियों के साथ अच्छी संख्या में प्राध्यापक, साहित्यकार , पत्रकार और विश्नोई समाज से हरीराम विश्नोई, ओमप्रकाश ढाका, मांगीलाल विश्नोई और ओमप्रकाश विश्नोई उपस्थित थे।
चित्र जानकारी: डॉ करुणाशंकर उपाध्याय की पुस्तककथा साहित्य का पुनर्पाठ के लोकार्पण करते हुए राज्य पाल भगत सिंह जी कोशियरी।चित्र में बाएं से श्रीमती सुमीतासुमन सिंह,दीपक मुकादम,डाॅ.करुणाशंकर उपाध्याय, वीरेंद्र याज्ञिक व ओमप्रकाश तिवारी