द्वापर युग में हुए महाभारत के युद्ध की कहानी हम अक्सर सुनते आए हैं। कई लोग जानते होंगे कि महाभारत के युद्ध के बाद अश्वत्थामा ने अपने पिता द्रोणाचार्य का बदला लेने के लिए पांडवों के शिविर में कोहराम मचा दिया था। इसके बाद श्रीकृष्ण ने उसे हजारों सालों तक भटकने का श्राप दिया था। इसी वजह से अश्वत्थामा आज तक भटक रहा है। क्या आपको पता है कि अश्वत्थामा के अलावा महाभारत का एक और पात्र आज तक जीवित है। उसे कोई श्राप नहीं बल्कि चिरंजीवी रहने का वरदान मिला था। ये और कोई नहीं बल्कि पांडवों और कौरवों के गुरु कृपाचार्य हैं।
पौराणिक कथाओं में महर्षि गौतम का जिक्र अक्सर होता है। लेखक आशुतोष गर्ग ने अपनी किताब ‘अश्वत्थामा: महाभारत का शापित योद्धा’ में भी कृपाचार्य के बारे में लिखा है। उनके अनुसार महर्षि गौतम और अहल्या ने एक पुत्र को जन्म दिया था, जिसका नाम शरद्वान रखा गया। शरद्वान शास्त्र और धनुर्विद्या दोनों में पारंगत थे। एक बार वे अपने आश्रम में कठोर तपस्या कर रहे थे। इससे देवलोक में देवताओं के सिंहासन डोलने लगे। इंद्र देव ने अपने प्रभुत्व पर खतरे को देखकर शरद्वान की तपस्या भंग करने के इरादे से जानपदी नाम की अप्सरा को धरती पर भेजा।
जानपदी अपनी सुगंध और सुंदरता से शरद्वान का तपस्या से ध्यान भटकाने में कामयाब रही। जानपदी की कामुकता से मोहित होकर शरद्वान का वीर्य स्खलित हो गया और नीचे रखे सरकंडे पर गिर गया। ये देख शरद्वान को बहुत ग्लानि हुई और वे सबकुछ छोड़कर वहां से चले गए। उस सरकंडे से बाद में एक बालक और बालिका का जन्म हुआ। उन्हें राजा शांतनु ने अपना लिया। राजा शांतनु को लगा कि ये किसी तेजस्वी पुरुष के शिशु हैं। उन्हें कृप और कृपी नाम दिया। यही बालक कृप आगे जाकर कृपाचार्य के नाम से विख्यात हुआ।
कालांतर में कृपी का विवाह गुरु द्रोणाचार्य से हुआ। दोनों ने एक पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम अश्वत्थामा रखा गया। यही अश्वत्थामा आज भी भटक रहा है। वहीं, कृप धनुर्विद्या में पारंगत हो गए और कृपाचार्य बन गए। वे कुरुवंश के गुरु बने। उन्होंने कौरवों और पांडवों को शिक्षा दी।
अश्वत्थामा बलिवर्यासो हनूमांश्च विभीषणः।
कृपः परशुरामश्च सप्तएतै चिरजीविनः।।
इसका अर्थ है अश्वत्थामा, बलि, व्यास, हनुमान, विभीषण, कृप और परशुराम, ये सात चिरंजीवी हैं।
कृपाचार्य सात चिरंजीवी में से एक हैं। कहा जाता है कि वे इतने बड़े तपस्वी थे कि उन्हें अपने तप के बल पर चिरंजीवी रहने का वरदान मिला था। वहीं, कुछ लोगों का मानना है कि उनकी निष्पक्षता के आधार पर उन्हें चिरंजीवी रहने का वरदान मिला था।
महाभारत के युद्ध में कृपाचार्य ने कौरवों का साथ दिया था। जब युद्ध में कौरवों का वध हो गया और पांडव विजयी हुए तो वे उनके साथ चले गए। कहा जाता है कि युद्ध के दौरान कर्ण की मृत्यु के बाद कृपाचार्य ने दुर्योधन को पांडवों से संधि करने के लिए कहा था। मगर दुर्योधन इसके लिए तैयार नहीं हुए। बाद में कृपाचार्य पांडवों के शासन में धनुर्विद्या की शिक्षा देते रहे। उन्होंने परीक्षित को भी अस्त्र का ज्ञान दिया। कहते हैं कि चिरंजीवी का वरदान होने के चलते कृपाचार्य आज भी जीवित हैं।
अश्विनी कुमार मिश्र