पंजाब में सत्तारुढ़ कांग्रेस पार्टी में जारी किचकिच खत्म होने का नाम नहीं ले रही है. नवजोत सिंह सिद्धू को पंजाब कांग्रेस का अध्यक्ष बनाए जाने की खबर पर मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह की नाराजगी के बाद सिद्धू खेमा अलर्ट हो गया है । अब नवजोत सिंह सिद्धू के प्रदेश अध्यक्ष के तौर पर ताजपोशी से पहले पंजाब कांग्रेस दो-फाड़ होने की कगार पर पहुंच गया है । अगर मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंद सिंह खेमे ने आलाकमान पर सिद्धू की ताजपोशी रोकने का बनाया दबाव तो ऐसे में आगे की रणनीति सिद्धू खेमे के द्वारा तैयार की जा रही है । प्रदेश अध्यक्ष बनाए गए नवजोत सिंह सिद्धू और मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह के बीच विवाद कम होने की बजाए बढ़ता ही दिख रहा है। कैप्टन ने फिर कहा है कि सिद्धू के माफी मांगने तक उनसे नहीं मिलूंगा।सिद्धू कैंप की ओर से यह कहा गया कि उन्होंने कैप्टन से मिलने का समय मांगा है। इसके तुरंत बाद कैप्टन अमरिंदर की ओर से कहा गया कि सिद्धू ने कोई समय नहीं मांगा है और उनके सार्वजनिक रूप से माफी मांगने के बिना मुलाकात का कोई सवाल नहीं है।मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह उन रिपोर्टस को गलत बताया है जिनमें कहा गया है कि नवजोत सिंह सिद्धू ने उनसे मुलाकात के लिए समय मांगा है। कैप्टन ने कहा कि सिद्धू ने उनसे मिलने के लिए समय नहीं मांगा है। कैप्टन ने उन सभी नेताओं की अपील यह कहते हुए दरकिनार कर दी कि वह उस समय तक नवजोत सिंह सिद्धू से मुलाकात नहीं करेंगे जब तक वह (सिद्धू) अपने ट्वीट और बयानों के लिए सार्वजनिक रूप से माफी नहीं मांग लेते।
सिद्धू खेमा यहाँ तक कहता है कि मुख्यमंत्री के खिलाफ सिद्धू के ट्वीट पर माफी मांगने की जरूरत नहीं क्योंकि मुख्यमंत्री के तौर पर कैप्टन ने जनता से किए गए वादों को पूरा नहीं किया, माफी तो कैप्टन को मांगनी चाहिए। दोनों नेताओं के मध्य टकराव ने पार्टी हाईकमान की चिंता बढ़ा दी है। दोनों के बीच तालमेल कायम नहीं हुआ तो विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के लिए मुश्किलें खड़ी हो सकती हैं। सिद्धू अब जगह-जगह जाकर शक्ति प्रदर्शन कर रहे हैं। नवजोत सिद्धू को पंजाब प्रदेश कांग्रेस की कमान देने से कैप्टन समेत पार्टी के वरिष्ठ नेता खुद को अपमानित महसूस कर रहे हैं। नवजोत सिंह सिद्धू ने साल 2004 में भारतीय जनता पार्टी के साथ अपना राजनीतिक करियर शुरू किया था, जब वो अमृतसर से सांसद चुने गए थे। वर्ष 2014 में पूर्व वित्त मंत्री अरुण जेतली को अमृतसर से चुनाव लड़ाया गया तो सिद्धू को राज्यसभा में भेज दिया गया। वर्ष 2016 से भाजपा से अलग होकर आप पार्टी से भी उनकी बात चली लेकिन बात सिरे नहीं चढ़ी। इसके कुछ महीनों के भीतर वह कांग्रेस में शामिल हो गए। वर्ष 2017 में विधानसभा चुनाव से पहले उन्हें कांग्रेस में लाने में राहुल गांधी और प्रियंका गांधी की अहम भूमिका रही। उस समय भी कैप्टन अमरिन्द्र सिंह इस फैसले से सहमत नहीं थे। फिर कैप्टन की अगुवाई में कांग्रेस ने पंजाब में 117 में से 77 सीटें हासिल कर शानदार जीत दर्ज की थी। कैप्टन ने सिद्धू को कैबिनेट मंत्री बनाया। मंत्री पद के बावजूद सिद्धू कपिल शर्मा शो में बतौर जज भाग लेते रहे और लच्छेदार बातों में लोगों का मनोरंजन करते रहे।
2018 में सिद्धू का पाक प्रधानमंत्री इमरान खान के न्यौते पर उनके शपथ ग्रहण समारोह में जाने और पाकिस्तानी सेना प्रमुख को गले लगाने पर राजनीति में तूफान खड़ा हो गया। सिद्धू की सार्वजनिक आलोचना हुई तो कैप्टन अमरिन्द्र भी शामिल हो गए। तब सिद्धू ने पंजाब मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया। मगर सिद्धू को पंजाब सिखों के लगभग सभी वर्गों में भारत-पाकिस्तान में अमन का पैगाम लाने के शख्स के तौर पर देखा गया, जो करतारपुर कॉरिडोर बनाने का पाकिस्तान प्रस्ताव लाए थे। करतारपुर कॉरिडोर खुलने से भारतीय सिखों के िलए गुरु नानक देव जी से जुड़े करतारपुर गुरुद्वारे तक जाना मुमकिन हो सका है। कुछ समय खामोश रहने के बाद सिद्धू ने कैप्टन को िनशाना बनाना शुरू कर दिया। उन्होंने 2015 के बरगाड़ी फायरिंग मामले में इंसाफ न मिलने और कैप्टन पर बादल परिवार से सांठगांठ करने, उन्हें बचाने के आरोप लगाए तथा खनन माफिया और परिवहन माफिया के मुद्दे पर भी बहुत कुछ कहा।
अब सवाल यह है कि सिद्धू के रहते पंजाब में कांग्रेस की स्थिति सुधरेगी या बिगड़ेगी। इस बारे में िपक्चर अभी बाकी है। सवाल यह भी है कि वह सभी काे साथ लेकर कैसे चलेंगे? यह भी साफ है कि सिद्धू को कभी कांग्रेस विधायकों का भरपूर समर्थन नहीं िमला। अगर पार्टी में एकता नहीं होगी तो बाहरी चुनौतियां और गम्भीर होंगी। ये चुनौतियां कम नहीं होंगी बल्कि आने वाले दिनों में और बढ़ेंगी क्योंकि चुनावों के नजदीक आते ही पार्टी के भीतर आंतरिक विरोध और तेज हो सकता है। ऐसा नहीं है कि कैप्टन सरकार की उपलब्धियां भी कुछ खास नहीं रहीं। उम्रदराज हो चुके कैप्टन की कार्यशैली को लेकर काफी सवाल पहले भी उठते रहे हैं। पंजाब की सियासत में ऐसा पहली बार हुआ जब दलित और हिन्दू केन्द्र में है। कांग्रेस ने जातिगत समीकरण साधने के लिए जैतो निवासी टकसानी कांग्रेस नेता पवन गोयल को पार्टी का कार्यकारी अध्यक्ष बनाया गया। उनके साथ तीन कार्यकारी अध्यक्ष और भी बनाए गए हैं। जिनमें कुलजीत नागरा, सुखविन्द्र सिंह डैनी और संगत सिंह। इनकी नियुक्ति करते हुए जाति और क्षेत्रीय संतुलन बनाने की कोशिश की गई। अभी तक दोनों प्रमुख सियासी दल शिरोमणि अकाली दल और कांग्रेस राज्य की कुल आबादी में 19 फीसदी का हिस्सा रखने वाले जट्ट सिखों पर ही दांव लगाते रहे हैं, मगर इस बार सबकी नजर 70 फीसदी दलित-हिन्दू वोट बैंक पर है। इसमें कांग्रेस और अकाली भी शामिल हैं। पंजाब की राजनीति में दलितों आैर हिन्दुओं की उपेक्षा काफी होती रही है। रामगढ़िया सिख बिरादरी से संबंध रखने वाले ज्ञानी जैल सिंह को छोड़ कर 1967 के बाद पंजाब में गैर जट्ट सिख कभी मुख्यमंत्री नहीं बना। अकाली दल कह रहा है कि सरकार बनी तो हिन्दू और दलित भाइचारे से डिप्टी सीएम होगा। कांग्रेस, आप भी दलितों-हिन्दुओं को तरजीह देने की बातें कर रही है। अकाली दल ने बसपा से गठबंधन कर लिया है। सत्ता के समीकरण काफी उलझे हुए हैं। ऐसे में उलझी हुई कांग्रेस चुनावों में कैसे उतरेगी। कैप्टन अमरिन्द्र सिंह अभी भी प्रभावशाली और लोकप्रिय नेता हैं। पंजाब की राजनीति पर उनकी पकड़ है। नवजोत सिंह के प्रदेशाध्यक्ष बनने से पंजाब के युवाओं में जोश है और सिद्धू पहले से ही काफी लोकप्रिय है। उनकी मुहावरेदार भाषा लोगों को आकर्षित करती है। देखना होगा कांग्रेस हाईकमान पंजाब की कलह को कैसे शांत करता है। ऊंट किस करवट बैठता है इसका पता तो बाद में लगेगा। दोनों की लड़ाई में जग हँसाई व नुकसान तो कांग्रेस का ही हो रहा हैं ।
अशोक भाटिया,
स्वतंत्र पत्रकार