कितना सफल होगा गैर भाजपावाद का पवार फार्मूला ?
राजनीतिक दल लोकतंत्र के प्राण माने जाते हैं .दलों के बिना लोकतंत्र की कल्पना नहीं की जा सकती हैं । स्वस्थ लोकतंत्र के लिए स्वस्थ चरित्र वाले राजनीतिक दल का होना आवश्यक हैं । लेकीन वर्तमान परिस्थिति पर नजर डाले तो यह बिल्कुल भिन्न नजर आता हैं . राजनीतिक दलों का गठन सिद्धांत पर आधारित होता हैं लेकिन वे जल्द ही व्यक्तिवाद के ओर मुड जाते हैं । आज भारतीय राजनीति में परिवारवाद नामक संस्कृति हावी हो रही हैं । आज आप पुरे भारत के किसी राज्य में देख ले सभी में परिवारवाद जोरो पर चल रही हैं .नेता के जितने भी सगे सम्बन्धी हैं सभी नेता बनने को आतुर दिखाई पड़ते हैं .और आम कार्यकर्ता झंडे लेकर दौड़ते ही रह जाते हैं । भारत चुकी दुनिया का सबसे बड़ा संसदीय लोकतंत्र कहलाता है, अतः इसमें जो भी बदलाव आता है वह जनता जनार्दन की इच्छा के वशीभूत ही होता है। जनता ही है जो राजनीतिक दलों की भूमिका बदलती रहती है । इसलिए देश के सर्वाधिक वरिष्ठ राजनेता श्री शरद पवार जो कवायद कर रहे हैं वह लोकतंत्र में और अधिक जिम्मेदारी पैदा करने व जवाबदेह बनाने के लिए कर रहे हैं। इस प्रणाली में सत्ता पक्ष-विपक्ष के माध्यम से आम जनता के प्रति जवाबदेह होता है। यदि विपक्ष बिखरा हुआ रहता है तो सत्ता पक्ष की जवाबदेही भी बिखर जाती है। जाहिर इससे पहले से ही सबल सत्ता पक्ष को और ताकत मिलती है। इससे लोकतंत्र के बेलगाम होने का रास्ता भी परोक्ष रूप से खुलता है।
ऐसा अनुभव 1967 में समाजवादी चिंतक डॉ. राम मनोहर लोहिया का हुआ था और उन्होंने गैर कांग्रेसवाद का नारा बुलंद किया था। इस नारे के चलते कांग्रेस विरोधी सभी दल तब एक झंडे के नीचे जमा हो गये थे। संयोग से इस वर्ष हुए चुनावों में नौ राज्यों में कांग्रेस बहुमत से बाहर हो गई और लोकसभा में उसे केवल 18 अधिक सांसदों का बहुमत मिला था। गैर कांग्रेसवाद के नारे का असर यह हुआ कि नौ राज्यों में से पांच राज्यों में आपस में कट्टर विरोधी विचारधारा रखने वाले जनसंघ व कम्युनिस्ट एक मंच पर आ गये । मगर यह प्रयोग ज्यादा सफल नहीं हो पाया और साल-डेढ़ साल के बाद ऐसी सरकारें टूट गईं। अब वक्त इस तरह बदला है कि श्री पवार गैर भाजपावाद का झंडा बुलंद करके सभी गैर भाजपाई दलों को एक मंच पर लाना चाहते हैं। इस प्रयास के सफल होने का मंत्र आज की परिस्थितियों में यही हो सकता है कि एक समान विचारधारा वाले दल ही मजबूत विपक्षी मंच के रूप में उभर सकते हैं।
विपक्ष की मजबूती के लिए केवल गैर भाजपावाद जरूरी नहीं हो सकता क्योंकि इसका हश्र भी अन्ततः गैर कांग्रेसवाद के समान ही हो सकता है। श्री पवार के उत्साह का एक कारण प. बंगाल में भाजपा की विफलता भी हो सकता है क्योंकि इस प्रदेश में भाजपा ने अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया था। मगर इससे अन्य विशेषकर उत्तर भारतीय व पश्चिमी राज्यों में भाजपा की ताकत को कम करके नहीं तोला जा सकता। हो सकता है कि श्री पवार के प्रयासों के पीछे यह भी एक कारण हो। मगर वर्तमान में विपक्ष के सामने एक दिक्कत नहीं बल्कि कई दिक्कतें हैं। मसलन ओडिशा में बीजू जनता दल विपक्षी दल होने के बावजूद सुविधा की राजनीति करने में मशगूल रहता है। यही हालत आंध्र प्रदेश की वाईएसआर कांग्रेस व तेलंगाना की तेलंगाना राष्ट्रीय समिति का है।
उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में यहां के प्रमुख क्षेत्रीय दलों बसपा व सपा की राजनीति के बारे में कोई भविष्यवाणी नहीं की जा सकती। ये दोनों दल अपनी गोटियां इस तरह बिछाते हैं कि किसी भी सूरत में कांग्रेस पार्टी अपनी खोई हुई जमीन प्राप्त न कर सके। इसके लिए वे किसी भी हद तक जा सकते हैं और सत्ता और विपक्ष का भेद भी भुला सकते हैं। बेशक केन्द्र में 1996 के बाद से साझा सरकारों का दौर शुरू हुआ मगर इसकी विशेषता यह रही कि साझा सरकारें बिना कांग्रेस या भाजपा की मदद से नहीं चल सकी। 1996 से 98 तक देश में जिस राष्ट्रीय मोर्चा सरकार का गठन हुआ वह गैर भाजपावाद के चलते ही हुआ मगर ऐसी सरकार को कांग्रेस की बैसाखी की जरूरत पड़ी। इसके बाद 1998 से भाजपा ने अपने नेतृत्व में 2004 तक सरकार चलाई जिसे वाजपेयी सरकार कहा जाता है। इसके बाद दस वर्ष तक कांग्रेस के नेतृत्व में मनमोहन सिंह सरकार गैर भाजपावाद के नारे पर ही चली।
मगर 2014 में राजनीतिक चित्र पूरी तरह बदल गया और भाजपा अपने बूते पर सरकार बनाने में सफल रही। 2019 में भी यही स्थिति बनी। मगर लोकतंत्र जड़ता बर्दाश्त नहीं करता है इसलिए राज्यों के चुनावों में हमें मिश्रित परिणाम देखने को मिले और उन्हीं से प्रभावित होकर श्री शरद पवार विपक्षी एकता का प्रयास करते मालूम पड़ते हैं परन्तु बिना विचाधारा की समानता के विपक्षी एकता किसी भंगुर पदार्थ की मानिन्द ही साबित होती रही है इसलिए श्री पवार को यह विचार करना चाहिए कि वैचारिक समानता के आधार पर ही एकता का प्रयास आगे बढ़ाया जाये। इसका सबसे सुगम मार्ग यह हो सकता है कि कांग्रेस छोड़ कर अलग हुई सभी पार्टियां पुनः एक मंच पर आकर सशक्त विपक्ष की भूमिका निभाने के बारे में सोचें। क्षेत्रीय दलों के गठबन्धन को आगे बढ़ा कर इसे पंचमेली राष्ट्रीय स्वरूप देने को अवसरवादी गठबंधन से नवाजने में कोई राजनीतिक असुविधा नहीं होगी। भाजपा अब राष्ट्रीय स्तर की मजबूत पार्टी है और इसका मुकाबला भी राष्ट्रीय स्तर का विकल्प देकर ही किया जा सकता है। लोकतंत्र की सफलता इस बात पर भी निर्भर करती है कि इसमें ठोस विकल्पों की जनता के सामने कमी नहीं रहनी चाहिए। आश्चर्य है कि शिवसेना, द्रमुक और झारखंड मुक्ति मोर्चा भी बैठक में शामिल नहीं हुए । कांग्रेस के कुछ नेताओं को भी आमंत्रित किया गया था लेकिन उनमें से किसी के शरीक नहीं होने से यह स्पष्ट संकेत मिलता है कि मुख्य विपक्षी पार्टी क्षेत्रीय दलों के नेतृत्व वाले मोर्चे का हिस्सा नहीं बनना चाहती है । कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने बैठक पर टिप्पणी करने से इनकार करते हुए यहाँ तक कहा कि यह राजनीति पर चर्चा करने का समय नहीं है ।
अशोक भाटिया,
स्वतंत्र पत्रकार