Home विविधाकला राजन के जाने से उदास हो गयी कबीर चौरा की बगिया

राजन के जाने से उदास हो गयी कबीर चौरा की बगिया

by zadmin

नारस घराने की कबीर चौरा बगिया

बनारस संगीत घराने की नर्सरी कबीर चौरा का एक बिरवा, जो संगीत का वटवृक्ष बन गया था, कोविड की भेंट चढ़ गया। कबीर चौरा की इस उदासी का सबब बेवजह कतई नहीं। राजन मिश्र ने यहीं संगीत का ककहरा सीखा। बनारस की जीवंत संगीत परंपरा के स्तम्भ राजन मिश्र के निधन से एक ऐसा शून्य उपजा है, जिसकी भरपाई कठिन तो है ही, नई पीढ़ी के लिए चुनौती भी है। काशी या बनारस अपने जीवंत शहर होने का प्रमाण कालांतर में विभिन्न रूपों में पूरी दुनिया में प्रस्तुत करता रहा है। काशी की पहचान ‘सांस्कृतिक राजधानी’ के रूप में है! तो वह राजन मिश्र सरीखे नामचीन, समर्पित साधकों की वजह से रही है। इन पांच हजार साल के कालखण्ड और लम्बी परंपरा को अपने-अपने योगदान से ऐसी अनेक विभूतियों ने सींचा है, जिनका समर्पण प्रेरक है।
राजन मिश्र संगीत की सुदृढ़ परंपरा से उपजे थे। अपने समय कंठ संगीत में जिनकी तूती बोलती थी, ऐसे संगीत पुरुष बड़े रामदास से ‘गंडा बंधवाने’ (शिष्यत्व ग्रहण करने) की परंपरा के बाद पिता हनुमान प्रसाद और चाचा गोपाल मिश्र के कड़े अनुशासन में एक ओर, संगीत की पारंपरिक शिक्षा, दूसरी ओर, अपने कत्थक समुदाय के सम्भवत: पहले पोस्ट ग्रेजुएट और मेरे सहपाठी राजन का प्रारंभिक जीवन कठिन और साधनों की कमी का जीवन था। दो परिवारों में ट्यूशन के लिए गर्मी, जाड़ा, बरसात में 12-15 किलोमीटर की साइकिल यात्रा के बाद आधी रात और कभी-कभी भोर तक लंबे रियाज की कड़ी तपस्या और साधना की उपज राजन और उनके छोटे भाई साजन की जोड़ी ऐसी बनी कि दुनिया के लिए उदाहरण बन गई। राजन-साजन मेरे पड़ोसी थे, पर पांच दशकों में कभी भी भाई-भाई में कोई मतभेद या विवाद सुना भी नहीं गया। भरे मन से 1977 में काशी को अस्थाई रूप से अलविदा कहकर दोनों भाई दिल्ली गए जरूर, लेकिन दिल में बनारस रचा-बसा रहा। होली, श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर काशी जरूर रहते थे। होली के हुड़दंग में प्रौढ़ राजन-साजन बच्चे बन जाते। यही सहजता, शालीनता राजन की पहचान थी। पद्मविभूषण, यश भारती, संगीत नाटक अकादमी सम्मान पाकर भी राजन मुहल्ले के लिए  ‘का हो राजन चचा’ ही बने रहे। अपने भव्य वस्त्रों – कुर्ता-धोती के लिए अपने दर्जी भरत जी के यहां दुनिया भूलकर घंटों सुख-दुख करते राजन, अपने नाई, दूधवाले सभी के सुख-दुख में शामिल राजन को देख यही भाव आता था कि इतना बड़ा आदमी इतना सहज कैसे है? 
सब मानते हैं कि कबीर चौरा गली आधा दर्जन पद्म सम्मान से सम्मानित लोगों की ऐतिहासिक गली है। यहां से शुरू राजन की संगीत यात्रा में अमेरिका, जर्मनी, रूस, सिंगापुर, मस्कट, बांग्लादेश, ऑस्ट्रिया आदि पड़ाव रहे। वैसे 1978 में विदेश में श्रीलंका में पहला कार्यक्रम उनकी यादों में रचा-बसा था। दिग्गज शास्त्रीय गायक की खूबी उनके मन-मिजाज की सरलता थी। मंच पर बैठे राजन के गायन में एक सम्मोहन था। बनारस घराने की खास बंदिशें और टप्पा प्रस्तुत करते हुए आंखें बंद कर जब सुर साधते, तो उनके बोल-बनाव में आध्यात्मिकता के सुरों की बानगी मिलती थी। रंजकता, भावुकता से शुरू उनका गायन श्रोताओं को रसिकावस्था तक पहुंचाने में सफल रहता था। अपनी गोद में रखे सुर बहार और शब्दों की लय को एकाकार करने में निपुण राजन संगीत की बारीकियां भी श्रोताओं को समझाते थे। उनका प्रिय भजन, चले मन वृंदावन की ओर   प्राय: हर कार्यक्रम में श्रोताओं को भावविभोर करता था। ठुमरी, दादरा के साथ अपनी प्रिय प्रस्तुति, ‘धन्यभाग सेवा का अवसर पाया’ जरूर सुनाते और इस दौरान दोनों भाइयों की आंखों में आंसू की बूंदें चमकती थीं। अपनी बोल-बंदिशें वे गुरु को समर्पित कर देते थे।
काशी में संगीत ग्राम की उनकी योजना अधूरी भले ही हो, पर देहरादून में उनकी संगीतशाला, ‘विराम’ और काशी में पैतृक आवास राजन मिश्र के स्मारक संगीत तीर्थ हैं। वह अपने छात्रों को हेल्दी फ्यूजन संगीत की मनाही नहीं करते थे, पर शास्त्रीयता को संगीत की मूल पूंजी मानते थे। एक फिल्म ‘सुर संगम’ में स्वर दिया, पर फिल्मी दुनिया रास नहीं आई। राजन-साजन मिश्र पर बनी ‘अद्वैत’ डाक्यूमेण्ट्री का नाम सार्थक है। श्री श्री रविशंकर के मंत्र संगीत – ब्रह्मवाद तथा बाद में कंठ संगीत – अन्तर्नाद में राजन-साजन की प्रस्तुति विश्वस्तर पर चर्चित हुई। राजन-साजन मिश्र बंधुओं की सदाबहार जोड़ी वैसे तो बिखर गई, लेकिन इस जोड़ी को सितारवादक पंडित रविशंकर ने 40 साल पहले बखूबी पहचाना था। काशी के संकटमोचन मंदिर में हर साल आयोजित होने वाले मुक्ताकाशीय संगीत सम्मेलन में रात भर के आयोजन की अंतिम प्रस्तुति में राजन-साजन सुबह तक गाते थे। संकटमोचन के महंत पंडित विश्वंभरनाथ मिश्र प्राय: याद करते रहे हैं कि 1979 में पंडित रविशंकर अल सुबह मंदिर पहुंचे, उनका जन्मदिन था। राजन-साजन का गायन चल रहा था, हनुमान जी की परिक्रमा के बाद पंडित रविशंकर अचानक ठिठक गए, बड़े महंत वीरभद्र जी के साथ बैठ गए और राजन-साजन को सुनकर ही उठे। भावविभोर पंडित रविशंकर ने वहीं राजन-साजन को एक बड़े कार्यक्रम के लिए आमंत्रित किया। इस घटना को राजन-साजन मिश्र हनुमान जी की कृपा से प्राप्त सांगीतिक पुनर्जीवन मानते रहे। कुछ समय पहले इस्कान के चीफ ट्रस्टी प्रभु सूरदास की संगीतज्ञ पंडित जसराज से (उनके अमेरिका जाने से पूर्व) मुंबई में भेंट हुई थी। पंडित जसराज ने बनारस के बारे में बहुत जिज्ञासाओं के बाद भावपूर्ण शब्दों में पूछा था, ‘और राजन-साजन?’ पंडित जसराज कहने लगे थे, ‘अभी राजन-साजन को बहुत कुछ मिलेगा।’दिल्ली के रमेश नगर में अपने अलग अध्ययन कक्ष पर उन्हें गर्व था। वहां आधुनिक ओशो साहित्य के साथ-साथ भरत मुनि के नाट्यशास्त्र की पुस्तकों का विशाल संग्रह था, जिसके बीच वह घंटों रियाज करते थे। बनारस की ख्याल गायकी के पुरोधा महारथी राजन मिश्र की मान्यता थी कि संगीत में ईश्वर ही सब कुछ है। ईश्वर ही गा रहा है, हमारे अंदर से, हम तो उस अंबर के ओंकारनाद की गूंज के माध्यम हैं। ‘स्वर’ नहीं, बल्कि ‘ईश्वर’ ही सुर का मूल है। वह केवल बनारस घराने की ही नहीं, देखते-देखते बनारस की भी पहचान बन गए थे। बनारस घराने की कबीर चौरा बगिया की उदासी राजन के जाने से एक बार फिर लौट आई है।

राम मोहन पाठक,

कुलपति, नेहरू ग्राम भारती मानित विश्वविद्यालय,

प्रयागराज
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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