देश में प्रतिदिन दो लाख से अधिक नये संक्रमितों का सामने आना महामारी की गंभीरता को दर्शा रहा है। इस बार के बदले हुए वायरस की गति न केवल तेज है बल्कि घातक भी है। चौंकाने वाली बात यह है कि प्रतिदिन एक लाख से दो लाख लोगों के संक्रमित होने में महज दस दिन लगे। चिंता की बात यह कि इस बार संक्रमित होने वालों में युवा व बच्चे ज्यादा हैं। खासकर तीस से चालीस वर्ष आयु वर्ग की संख्या, जिनकी अधिक जनसंख्या के चलते सामाजिक सक्रियता ज्यादा है। इन डरावने आंकड़ों के बीच हरिद्वार में चल रहे कुंभ में कोरोना नियमों का उल्लंघन करती लाखों लोगों की भीड़ विचलित करती है। मंगलवार के शाही स्नान में बताते हैं कि चौदह लाख लोगों ने स्नान किया। सोचकर डर लगता है कि जब देश के विभिन्न राज्यों से आये तीर्थयात्री अपने घरों व शहरों को लौटेंगे तो उसके बाद क्या स्थिति होगी। कुंभ क्षेत्र में हो रही जांच में हजारों की संख्या में संक्रमित तीर्थयात्री सामने आये हैं, जिनमें आम लोग ही नहीं, अखाड़ों के नामी संत-महंत भी शामिल हैं जो किसी तरह भी मास्क लगाने को तैयार नहीं हैं और शारीरिक दूरी का परहेज भी नहीं कर रहे हैं। देश में व्याप्त कोरोना संकट के बीच सार्वजनिक स्थलों पर ऐसा व्यवहार विचलित करने वाला है और भीड़ की सामूहिक चेतना पर सवाल उठाता है। उस पर उत्तराखंड के मुख्यमंत्री तीरथ सिंह का बेतुका बयान सामने आता है कि गंगा मैया की कृपा से कोरोना नहीं होगा। इससे पहले भी उनके कई बचकाने बयान सामने आ चुके हैं और जांच रिपोर्ट के बगैर कुंभ आने के फैसले के बाद उत्तराखंड हाईकोर्ट ने तीर्थयात्रियों के लिये जांच रिपोर्ट लाना अनिवार्य किया था। निस्संदेह, हरिद्वार प्रशासन के लिये कुंभ का प्रबंधन एक टेढ़ी खीर साबित हो रहा है। प्रशासन अखाड़ों और संतों को समझाने का प्रयास कर रहा है कि इस चुनौतीपूर्ण समय में कुंभ के शेष पर्वों को टाल दिया जाये। यह स्थिति एक विवेकशील समाज के लिये असहज स्थिति पैदा करती है। सामूहिक विवेक पर सवालिया निशान लगाती है।
कमोबेश यही स्थिति देश के चार राज्यों व एक केंद्रशासित प्रदेश में हुए विधानसभा चुनावों को लेकर भी पैदा हुई। तीन राज्यों व एक केंद्रशासित प्रदेश में तो जैसे-तैसे चुनाव संपन्न हो गये हैं, लेकिन रणक्षेत्र बने पश्चिम बंगाल में बाकी चार चरणों का चुनाव शासन प्रशासन के लिये गले की हड्डी बना हुआ है। यह मांग की जा रही थी कि शेष चार चरणों का मतदान विकट परिस्थितियों को देखते हुए एक ही चरण में करा दिया जाये। लेकिन चुनाव आयोग ने ऐसी किसी संभावना से इनकार किया है। निस्संदेह, ऐसे फैसलों को राजनीति गहरे तक प्रभावित करती है और राजनीतिक दलों के नफा-नुकसान को ध्यान में रखकर ऐसे निर्णय लिये जाते हैं। बहरहाल, चुनाव रैलियों, रोड शो और लंबे जनसंपर्क अभियान के बाद इन राज्यों में कोरोना संक्रमण में अप्रत्याशित वृद्धि सामने आयी है, जो कि डराने वाली है। नेता तो चुनाव जीत-हार के निकल जायेंगे, लेकिन इन इलाकों की जनता को उसकी कीमत चुकानी पड़ेगी। जिस सिस्टम की पहले ही सांसें उखड़ी हुई हैं वो क्या समाज को चिकित्सा सहायता उपलब्ध करा पायेगा? जिन राज्यों में कोरोना का कहर ज्यादा है, वहां मरीजों की बेबसी विचलित करने वाली है। आक्सीजन का संकट और जीवन रक्षक दवाओं की कालाबाजारी व्यथित करती है। सवाल यह है कि जब देश की स्वतंत्रता को सात दशक पूरे हो चुके हैं तो हम जनता में यह विवेक क्यों पैदा नहीं कर पाये कि वह भीड़तंत्र का शिकार न बने। क्यों उसे राजनीतिक रैलियों और धार्मिक आयोजनों की भीड़ का हिस्सा बनना अपनी जान की कीमत से ज्यादा महत्वपूर्ण लगता है? क्यों वह देश के संक्रमण हालात से अनभिज्ञ बना हुआ है, जबकि हमारा चिकित्सातंत्र पहले से ही डॉयलिसिस पर चल रहा है। आखिर हमारे समाज में ऐसा प्रगतिशील नेतृत्व क्यों पैदा न हो पाया जो लोगों को राजनेताओं से इतर जीवन रक्षक तर्कशील सलाह दे सके और उसका अमल सुनिश्चित करा सके ताकि भीड़तंत्र आत्मघाती साबित न हो।