संस्मरण :जब डॉ भीमराव अंबेडकर की पत्नी की मदद के लिए पत्रकार को आया खत – संजीव शुक्ल
मुंबई: मैं मंत्रालय के सामने की सड़कों पर से गुजरता हूँ तो आस-पास के पार्क, चौक पर स्थापित मशहूर हस्तियों की प्रतिमाओं पर नज़र पड़ती है। इसमें महात्मा गांधी, देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, उद्योगपति जमशेदजी टाटा सहित कई हस्तियों की प्रतिमाएं कुछ सौ मीटर के फासले पर यहां लगी हुई हैं । मंत्रालय के समीप ही कुपरेज मैदान के गार्डन में पूर्व प्रधानमंत्री भारत रत्न राजीव गांधी जी की चिरपरिचित अंदाज में लोगों की तरफ हार फेंकने की मुद्रा वाली प्रतिमा भी दो दशक पहले स्थापित की गयी है। इसका अनावरण श्रीमती सोनिया गांधी जी ने ही किया था और इस कार्यक्रम में एक पत्रकार के रूप में मौजूद भी था। इस प्रतिमा के अनावरण का मैं प्रत्यक्षदर्शी रहा हूँ । मंत्रालय के समीप ही मुंबई विश्वविद्यालय की तरफ जानेवाली सड़क के चौक पर ही डॉ भीमराव अंबेडकर की प्रतिमा भी लगी है। एक बार मैंने मुंबई में लगी प्रतिमाओं के बारे में भी नवभारत टाइम्स में कार्यरत रहते समय स्टोरी की थी। लेकिन आज मैं बात करूंगा डॉ भीमराव अंबेडकर की पत्नी डॉ.सविता अंबेडकर की। डॉ सविता अंबेडकर, डॉ भीमराव अंबेडकर की दूसरी पत्नी थी। साल 1935 में अंबेडकर की पहली पत्नी रमाबाई का निधन हो गया था। डॉ भीमराव अंबेडकर को 1940 के दशक में अनिद्रा की बीमारी हो गयी थी। उनके पैरों में भी दर्द रहता था। वह इंसुलिन और होम्योपैथिक दवाइयां लेते थे। डॉक्टरों ने उन्हें एक ऐसे सहयोगी की सलाह दी थी जो अच्छी कुक हो और जिसे मेडिकल की जानकारी भी हो ताकि उनका ख्याल रख सके। वह उपचार के लिये दिल्ली से मुंबई गए और वहां पर उनकी मुलाकात एक डॉक्टर शारदा कबीर से हुई। डॉ शारदा कबीर , भीमराव अंबेडकर का उपचार करती थी । 15 अप्रैल 1948 को अंबेडकर ने शारदा कबीर से शादी कर ली और उनका नाम रखा सविता अंबेडकर। शारदा कबीर ने अपना नाम सविता अंबेडकर स्वीकार कर लिया। उन्होंने भीमराव अंबेडकर के जीवन के अंतिम घड़ी तक उनकी देख रेख की। उन्हें ” माई ” कहकर भी संबोधित किया जाता था। सविता अंबेडकर की मौत 29 मई 2003में मुंबई में 93 साल की उम्र में हुई। मैं अंबेडकर की जन्म स्थली मध्य प्रदेश के महू में भी गया हूँ जहाँ पर अंबेडकर का एक स्मारक बनाया गया है। साल 2017 में जब मैं वहां गया था तब डॉ सविता अंबेडकर और भीमराव आंबेडकर की तस्वीरें वहां लगी हुई मैंने देखी थी। साल 2002-2003 की बात रही होगी। मैं मुंबई स्थित दादर में सिद्धिविनायक मंदिर जानेवाले मार्ग पर अपनी भाभी कबीर के साथ रह रही सविता अंबेडकर को मिलने के लिए जाता हूँ। मैंने सुना था कि उनका स्वास्थ्य ख़राब है। मैं वहां जब गया तो एक साहू नामक व्यक्ति ने बताया कि जिस जगह पर अपनी भाभी के साथ वह रहती थी वह जगह रीडेवलपमेंट में चली गयी है और उसका पुनर्विकास किया जा रहा है। वहां पूछताछ पर पता चला कि माहिम में पैराडाइज टॉकीज के पास वह रह रही हैं। मैंने माहिम के पैराडाइज टाकीज के इलाके में पता किया तो मालूम हुआ क्षितिज अपार्टमेंट के पहले महले पर स्थित एक फ्लैट में वह किराये पर भाभी के साथ रह रही हैं। मैं वहां गया और अपना परिचय दिया। सविता आंबेडकर एक बेड पर थी और उनकी तबियत ख़राब थी। हालत दयनीय थी। उनकी हालत देख कर नज़रों के सामने पत्थरों के बने कई बुत घूम गये। वहां उनकी देख – रेख के लिए नर्स थी। उनको नित्य क्रिया भी नर्स कराती थी। मैं उन्हें सविता अंबेडकर जी के नाम से परंपरागत शब्दों में अभिवादन करता हूँ। वह अंग्रेजी में कहती है ” इट हैज सिग्निफिकेंट मीनिंग ” ( इसका विशेष अर्थ है )। उनसे उनके स्वास्थ्य के बारे में बातें होती हैं। मैं उनसे कई बार मिला। ” गुमनामी के अँधेरे में कटते दिन ” शीर्षक से नवभारत टाइम्स में मेरी लिखी फीचर स्टोरी में उनके बारे में विस्तृत जानकारी प्रकाशित की गयी । हालांकि इस स्टोरी में अन्य महानुभावों के दशा के बारे में भी वृतांत था। यह फीचर स्टोरी प्रकाशित होने के बाद एक दिन जब मैं नवभारत टाइम्स कार्यालय गया ( उस समय मैं नवभारत टाइम्स में स्वतंत्र लेखन करता था , बाद में वहां मेरी नियुक्ति हुई थी ) तो सिटी एडिटर गंगाधर ढोबले जी ने ड्रावर से एक पत्र निकालते हुए कहा कि आपके लेख के बारे में पत्र आया है ,वह लोग सविता अंबेडकर जी मदद करना चाहते हैं और उनका पता चाहते हैं । मैंने देखा तो पाया की वह पत्र महू , मध्य प्रदेश से था। मैंने पता बता दिया और यह भी कह दिया कि स्टोरी में भी संक्षिप्त पता लिखा है ,वह चाहे तो सीधे जाकर वहां मिल लें। मेरे उस फीचर का यह परिणाम हुआ।यह लेखक के लिए संतोष देनेवाली बात थी. उसके बाद जब मैं मध्य प्रदेश स्थित महू के अंबेडकर स्मारक गया ,तो वहां इस बात का ज़िक्र हुआ तो वहां मौजूद लोग बड़े सम्मान से पेश आये। कई बार मैं सोचता हूँ कि जिनकी प्रतिमाएं स्थापित करके, उनके नाम पर वोट मांग कर स्वार्थ सिद्ध करना चाहते हैं ,क्या वास्तव में हम उनकी विरासत की कद्र करते हैं या उनके विचारों पर चलते हैं। कई बार मुझे नरिमन पॉइंट में स्थापित जमशेदजी टाटा की प्रतिमा याद आ जाती है। पारसी समुदाय के जमशेदजी टाटा का क्या योगदान है, यह सर्वविदित हैं लेकिन वोटों की बात करें तो पारसी समुदाय की तादाद बहुत ही कम है। भाषणों में उनका नाम नहीं सुना जाता।
संजीव शुक्ल