पीपल पर घोंसले नहीं होते
(सदियों तक पढ़ी जाएगी यह प्रेम गाथा)
लेखक- अभिलाष अवस्थी
यह कथा है मनु और श्रद्धा के प्रेम की। यद्यपि चरित्रों के नामों से यह कथा प्रसाद की ‘कामायनी’ और कथा में वर्णित प्रेम की उत्कटता व अनन्यता की वजह से धर्मवीर भारती के उपन्यास ‘गुनाहों का देवता’ की याद दिलाती है, तथापि इस कथा की पृष्ठभूमि एवं परिप्रेक्ष्य उक्त दोनों ही रचनाओं से सर्वथा भिन्न हैं। इन दो कालजयी कृतियों से इस कथा का साम्य मात्र यह है कि उनकी ही तरह यह भी एक प्रेम कथा है। एक ओर जहाँ लौकिक प्रेम की तीव्रता कथा के मूल में है, वहीं दूसरी ओर आध्यात्मिक प्रेम की विश्रांति और दार्शनिक प्रेम की मुक्ति भी कथा का अभिन्न अंग हैं। दूसरे शब्दों में प्रेम के अनेक रंग इस कहानी में अपनी संपूर्ण गरिमा, गंभीरता एवं गेयता के साथ मौजूद हैं।
श्रद्धा एक सामान्य मध्यवर्गीय परिवार की लड़की है। बचपन से ही उसका साथी है घर के सामने वाली फुटपाथ पर स्थित पीपल का एक पेड़ जिससे वह हमेशा अपना सुख-दुख बाँटती है। उसका एक और साथी है मनु, जिसके साथ खेलते हुए वह बड़ी होती है। बचपन का यह पारस्परिक स्नेह युवा होने पर कब उन्हें एक-दूसरे के लिए अपरिहार्य बना देता है, उन्हें पता ही नहीं चलता। मनु और श्रद्धा का प्रेम-संबंध उच्च जाति के करोड़पति कोठारी परिवार को रास नहीं आता है। कोठारी परिवार श्रद्धा से दूर करने के लिए मनु को पढ़ाई के बहाने विदेश भेज देता है। इधर श्रद्धा भी मनु के प्रोत्साहन से मेडिकल प्रवेश परीक्षा में पूरे दिल्ली प्रदेश में टाॅप कर M.B.B.S. में दाख़िला ले लेती है। छ: वर्षों बाद जब मनु भारत लौटता है तब वह एयरपोर्ट से पहला फोन श्रद्धा को ही करता है… श्रद्धा जो उस समय तिपहिया ऑटो से ड्यूटी पर अस्पताल जा रही थी, मनु का फोन रिसीव करती है और बताती है कि उसे अस्पताल से अति-आपातकालीन कॉल पर तुरंत बुलाया गया है। फिर श्रद्धा यह कहकर फोन काट देती है कि अस्पताल आ गया है, और हमारे सभी सीनियर डॉक्टर गेट पर ही एकत्र हैं। दूसरी तरफ मनु को भी एयरपोर्ट पर रोक लिया जाता है, और उसके बंगले पर होनेवाली उसकी वेलकम पार्टी भी रद्द कर दी जाती है|
यही वह काला क्षण था जब यह पता चलता है कि कोरोना महामारी अनेक देशों की तरह भारत में भी दस्तक दे चुकी है। विधि की विडंबना देखिए कि जिस मनु को श्रद्धा से दूर रखने के लिए मनु के परिवार ने लाखों साजिशें कीं, वही मनु कोरोना संक्रमित होकर उसी कोरोना वार्ड में भेज दिया गया जिसकी इंचार्ज डाॅक्टर श्रद्धा सरन ही होती हैं। बाॅडी शील्ड और मेडिकल कवच में रखे गये मनु को श्रद्धा तीन दिन बाद पहचान पाती है, लेकिन तब तक मनु ‘श्रद्धा-श्रद्धा’ फुसफुसाते हुए कोमा में चला जाता है |
यहाँ से कहानी एक नया मोड़ लेती है। श्रद्धा अपने मनु को मृत्यु के मुख से खींच लाने का सावित्री-संकल्प ले लेती है, और फ़िर शुरू होता है सामान्य स्थूल उपचार के साथ ही मनोवैज्ञानिक स्तर पर अवचेतन में स्थित विविध प्रेम-प्रतीकों के माध्यम से सूक्ष्म उपचार का सिलसिला। मनु की अँगुली में श्रद्धा की ही दी हुई घोड़े की नाल की अँगूठी, एस. डी.बर्मन का गाया गीत- “सुन मोरे बँधू रे…”, राधाकृष्ण की चंदन की मूर्ति, हरसिंगार के गजरे…. आदि अनेक प्रतीकों का प्रयोग श्रद्धा मनु को होश में लाने के लिए करती है। घर के किचन में न आने और पूजा के सिंहासन को न छूने के लिए मनु की माँ हमेशा श्रद्धा को डाँटती- फटकारती थीं …. क्या इस डाँट की रेकाॅर्डिंग भी मनु को होश में लाने में कोई भूमिका निभाती है? इस दौरान श्रद्धा किन चुनौतियों से गुज़रती है? उसका आत्मविश्वास और एकनिष्ठ समर्पण किस तरह से आशा की लौ जलाए रखता है? वह अंजलि पंडित कौन थी जो श्रद्धा को रोज़-रोज़ पराजय से बाहर खींचकर उसे मनु की जान बचाने के लिए प्रेरित करती रहती थी? उसी मनु को जिसे चीफ मेडिकल ऑफिसर ने क्लिनिकली डेड घोषित कर दिया था। अंतत: श्रद्धा अपनी संकल्प-शक्ति से मनु की प्राण रक्षा में सफल होती है या नहीं – यह आप पुस्तक पढ़कर स्वयं ही जानें तो बेहतर होगा। एक कहानी को पढ़ने के लिए जिज्ञासा का तत्व आवश्यक होता है, और कहानी के विस्तार में जाकर पाठकों का रस भंग करना मैं उचित नहीं समझता।
बहरहाल शुरुआती कुछ पृष्ठों में ही कहानी का इंद्रजाल पाठक को अपने प्रभाव में ले लेता है और शीघ्र ही पाठक स्वयं भी कहानी का हिस्सा बन जाता है। लेखक अभिलाष अवस्थी की प्रेक्षण क्षमता अद्भुत है और स्थितियों का यथार्थ एवं जीवंत चित्रण उनकी विशेषता। सहज एवं तरल लेखनी की वजह से पात्रों के आवेगों-संवेगों में डूबता-उतराता पाठक यह वृहद् कथायात्रा कब पूरी कर लेता है पता ही नहीं चलता।
अंत में मैं कहना चाहूँगा कि धर्मवीर भारती के उपन्यास ‘गुनाहों का देवता’ के बाद पवित्र प्रेम का ऐसा अद्भुत आख्यान कम से कम मैंने तो नहीं पढ़ा।
पौने चार सौ पृष्ठों में निबद्ध इस प्रेम-आख्यान के लिए अभिलाष जी को हार्दिक बधाई। अत्यंत आकर्षक कलेवर में इस महागाथा के गुणवत्तापूर्ण प्रकाशन के लिए मुंबई के प्रलेक प्रकाशन के श्री जीतेन्द्र पात्रो भी निश्चित ही बधाई के पात्र हैं।
– प्रशांत जैन
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