यह सुखद संयोग ही है कि बैसाखी एवं नवरात्र का पर्व एक ही दिन दस्तक दे रहा है। दोनों ही पर्व प्रकृति की सौगातों से जुड़े हैं। एक खेती-किसानी का पर्व है तो दूसरा प्राकृतिक जीवनशैली से शारीरिक और आध्यात्मिक शुद्धि का पर्व। खेतों में रबी की फसल लहलहा रही है। किसानी संस्कृति के देश में नयी फसल के घर आने का उल्लास है। साल भर की मेहनत कुदरत की कृपा से सही सलामत घर पहुंच रही है। घर धन-धान्य से परिपूर्ण है। ऐसे में जीवन का उल्लास बैसाखी के रूप में सामने आता है। खेती संस्कृति के प्रदेश पंजाब और कभी उसका हिस्सा रहे हरियाणा में इस पर्व के खास मायने हैं। खेतों में गाते-झूमते व चटख रंग के परिधानों में झूमते लोगों को देखकर बरबस बैसाखी का बोध हो जाता है। बैसाखी की लय प्रकृति के उद्दात भावों को भी दर्शाती है। इस पर्व से इतिहास की कई घटनाएं भी जुड़ी हैं। खट्टी-मीठी यादें भी हैं। नयी पहल की शुरुआत का दिन भी है। कुछ लोग कह सकते हैं कि इस बार की बैसाखी पर किसान आंदोलन की छाया है। यह अस्थायी व्यवधान हो सकता है। मेहनतकश किसानों ने आंदोलन भी किया तो खेतों को अपने पसीने से सींचा भी है। प्राकृतिक बाधा हो या अन्य व्यवधान, खेतों का सौंदर्य निखारने में किसानों ने कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है। बदलते वक्त के साथ उनके जीवन में भी तमाम तरह के बदलाव आये हैं। तकनीकी स्तर पर भी और फसलों के स्तर पर भी। खेती के आधुनिकीकरण और हरित क्रांति के बाद खेती के तौर-तरीकों में सुखद परिवर्तन आया है। किसान- पुत्रों के बड़े वर्ग ने खेती की जगह रोजगार के नये अवसर तलाशे हैं। लेकिन इसके बावजूद वही खेत हैं, वही अन्न है और वही किसान है। व्यवधान व बदलाव एक निरंतर परिवर्तन की प्रक्रिया है। एक अस्थायी दौर के बाद फिर किसानी संस्कृति मुस्कुराएगी। कुछ किसान आगे बढ़ेंगे और कुछ सरकार, बात बन जायेगी।
नवरात्र का पर्व भी समाज में गहरे निहितार्थों का उत्सव है। प्रकृति में परिवर्तन की बयार है। ग्रीष्म ऋतु की दस्तक है। यह संक्रमण का दौर है। हमारे शरीर में भी प्रकृति के साथ परिवर्तन होते हैं। यह पर्व उपवास के जरिये संयम से इस बदलाव के अनुरूप शरीर को ढालने की प्रक्रिया है। शरीर में पंच महाभूतों के संतुलन का पर्व है नवरात्र। आधुनिक प्राकृतिक चिकित्सा में उपवास का विशेष महत्व है। इसका पूरा विज्ञान है जो हमें बताता है कि शरीर में आकाश तत्व यानी खाली स्थान का भी महत्व है। हम रात-दिन जानवरों की तरह नहीं चर सकते। शरीर की पाचन क्रिया को आराम देने की जरूरत होती है। मौसम बदलता है तो खानपान की वस्तुओं में भी जैविक परिवर्तन होते हैं। हमें उपवास के जरिये संयम हासिल करना है। मौसम परिवर्तन के दौरान खानपान की वस्तुओं में होने वाले बैक्टीरिया के संक्रमण से शरीर को बचाना है। कोरोना संकट में यह पर्व और प्रासंगिक हो जाता है। लेकिन उपवास का मतलब यह कदापि नहीं है कि हम खाने के चटखारे वाले विकल्प बदल लें। एक मायने में हम नवरात्र का व्रत रखते हुए भी सामान्य दिनों से अधिक कैलोरी वाला भोजन करके व्रत के महात्मय को खत्म कर देते हैं। नवरात्र का सबसे बड़ा संदेश मातृशक्ति की प्रतिष्ठा को स्थापित करना है, जिसकी दुर्गा के विभिन्न रूपों में पूजा होती है। यह पर्व बताता है कि राक्षसी प्रवृत्ति कितनी भी शक्तिशाली क्यों न हो, मातृशक्ति के सामने परास्त होगी। शस्त्रधारी दुर्गा स्त्री जाति के लिये संदेश है कि वह अपनी रक्षा ही नहीं वंचित समाज की रक्षा करने में भी सक्षम है। कन्या पूजन के भी गहरे निहितार्थ हैं कि वे पूजने के योग्य हैं, दुराचार से उनकी रक्षा का संकल्प लिया जाये। संदेश यह भी कि सिर्फ नवरात्र में ही उनके पैर न छुए जायें, वर्ष पर्यंत उनकी रक्षा गरिमा के साथ की जाये। वे मानवीय सृष्टि की रचयिता हैं। दरअसल, हमने इन पर्वों के मर्म को भुलाकर उनके बाह्य रूप का ही अनुसरण किया है। इसके गहरे निहितार्थों को समझने में हमने चूक की है।