जीवन-संदेश -1
ओह! – – तभी तो !
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एक बार की बात है। किसी राज्य की राजधानी में राजा की सवारी निकलनी थी। सवारी निकलने से पहले सफ़ाई कर्मचारी सड़क साफ़ करते हुए चल रहे थे। एक स्थान पर सफ़ाई कर्मचारियों ने देखा कि एक वृद्ध संत सड़क के बीचों-बीच बैठे भगवान के भजन में लीन थे। एक सफ़ाई कर्मचारी ने लगभग डांटते हुए रूखे शब्दों में कहा, “बाबा, हट जा यहाँ से। राजा की सवारी आने वाली है। हट। हटता है या लगाऊँ एक झाड़ू !” संत ध्यान में मग्न रहे। जब सफ़ाई कर्मचारी कुछ दूर गया तो उसकी ओर
देखकर बोले,” ओह! तभी तो।”
थोड़ी देर बाद राजा का सिपाही आया और बोला, “ऐ बाबा! हटता क्यों नहीं। अंधा है क्या ? देखता नहीं राजा की सवारी आ रही है। उठता है या लगाऊँ—–।” सिपाही को दूर जाते देख संत बोले, “ओह! तभी तो।”
कुछ ही देर में राजा का मंत्री आ पहुँचा। संत महाराज को झुककर प्रणाम किया और बोला, ” महाराज जी, कृपया कुछ देर के लिए आप एक किनारे हो लें। राजा की सवारी निकल जाए तो फिर शौक़ से बीच सड़क पर भजन करना। अभी के लिए हट जाइए। कृपया।” संत ने मंत्री की ओर देखकर कहा, “ओह! तभी तो।”
इतने में ही राजा की सवारी आ पहुँची। मंत्री ने कहा, “महाराज, देखिए , ये संत जी यहाँ बीच सड़क पर बैठ कर भजन कर रहे हैं। हटते ही नहीं।” राजा ने सवारी से उतर कर संत को दण्डवत प्रणाम किया और बोला, “संत महाराज, कोई बात नहीं। आप यहीं बैठकर भजन करिए। आपको हटने की आवश्यकता नहीं।” और मंत्री से कहा, “मंत्री, हमारी सवारी को मुख्य सड़क से नीचे ले लो। कुछ दूर चलकर फिर सड़क पर आ जाएंगे। संत जी को यहाँ भजन करने दीजिए।” संत ने राजा की ओर देख कर कहा,” ओह! तभी तो।”
मंत्री बोला, “राजन संत जी ने सफ़ाई कर्मचारी, सिपाही और मुझसे, यहाँ तक कि आप से भी यही कहा है, ‘ओह! तभी तो।’ इनसे पूछिए तो सही कि ऐसा क्यों कहा।” राजा के पूछने पर संत बोले, “राजन, पहले सफ़ाई कर्मचारी आये तो अभद्र ढंग से बात करते हुए झाड़ू मारने की धमकी दे रहे थे, फिर सिपाही भी लगभग उसी तरीक़े से व्यवहार कर रहे थे। उनकी भाषा ऐसी थी तभी तो वे तरक़्क़ी न कर पाए। आपके मंत्री ने शालीनता से बात की। तभी तो ये मंत्री हैं और राजन, आपने तो विनम्रता की मिसाल पेश कर दी। आप शालीन होने के साथ-साथ विनम्र भी हैं, तभी तो आप राजा हैं। हे! राजन, मनुष्य की भाषा उसके व्यक्तित्व की परिचायक होती है।”
प्रस्तुति : अशोक वशिष्ठ
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