दोहे श्रृंगार के
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सपने में साजन मिले,मिले नैन से नैन ।
निरखूँ बनकर बावली,मूक हुए मम बैन ।।
कई वर्ष के विरह पर,लगा बरसने प्यार ।
सावन सरिता ज्यों बहे,त्यों उफने हिय नार ।।
सम्मुख साजन सोहते,सकल सुखों की खान ।
मैं मतिमारी मूक हो,निरखूँ चित्त भुलान ।।
खुशियों के झरने बहे,लगे बरसने नैन ।
भोर समेटे आ गई,माघ-पूस की रैन ।।
मन चाहे कुछ बोल दूं,किन्तु बंद आवाज ।
खुलें बिना पर क्या भरूं,पंछी-सी परवाज़ ।।
हिया हिलोरे मारता,मति गति पति अनुकूल ।
लगे अचानक पांव से,निकल गये सब शूल ।।
निरखि रहे घनश्याम ज्यों,यमुना तट वृषभानु ।
देखि-देखि चंदा जले,लाल हुआ ज्यों भानु ।।
पिय परदेशी सामने,मैं तो खुद से दूर ।
जमे जमीं पर पांव थे,हिय पर चढ़ा सुरूर ।।
मचले मन मुख चूम लूं,भरि साजन अँकवार ।
सास-ससुर सॅंग जेठ भी,हेर रहे तट द्वार ।।
पास मधुप,मधुवन मुदित,कलियां दिखें अधीर ।
लोक लाज बैरी बनी,बढ़ा रही हिय पीर ।।
यह वियोग संयोग का,कैसे करूं बखान ।
रुके रहें या चल पड़ें,असमंजस में प्रान ।।
बरस-बरस की चाह में,देते स्वप्न कलेश ।
सजन हमारे सामने,कैसे मिलूं सुरेश ।।
सुरेश मिश्र