दृष्टि-पथ से तुम जाते हो जब।
तब ललाट की कुंचित अलकों-
तेरे ढरकीले आंचल को,
तेरे पावन-चरण कमल को,
छू कर धन्य-भाग अपने को लोग मानते हैं सब के सब।
मैं तो केवल तेरे पथ से
उड़ती रज की ढेरी भर के,
चूम-चूम कर संचय कर के
रख भर लेता हूं मरकत-सा मैं अन्तर के कोषों में तब।
पागल झंझा के प्रहार सा,
सांध्य-रश्मियों के विहार-सा,
सब कुछ ही यह चला जाएगा-
इसी धूलि में अन्तिम आश्रय मर कर भी मैं पाऊंगा दब !
दृष्टि-पथ से तुम जाते हो जब।