Home Uncategorized अंतरराष्ट्रीय पुरुष दिवस पर महिला दिवस जैसी चमक क्यों नहीं !

अंतरराष्ट्रीय पुरुष दिवस पर महिला दिवस जैसी चमक क्यों नहीं !

by zadmin

8 मार्च को मनाए जाने वाले अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस का उद्देश्य महिलाओं के अधिकार, लैंगिक समानता, महिलाओं के प्रति सम्मान और उनकी उपलब्धियों को दुनिया के सामने लाना होता है ।  इस दिन उन महिलाओं के प्रति खास सम्मान व्यक्ति किया जाता है, जिन्होंने आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक क्षेत्र में अहम योगदान दिया है ।  लेकिन इसका ये मतलब नहीं है कि घरेलू महिलाओं को भूल जाया जाता है, उन्हें भी सम्मान दिया जाता है और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सभी महिलाओं को मुख्यधारा से जोड़ने पर बहस भी होती है  ।  महिला दिवस का मुख्य उद्देश्य महिलाओं में इस भावना को जगाना है कि वह किसी भी मामले में पुरुषों से कमतर नहीं हैं ।  अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस की शुरुआत 1909 में हुई थी ।आखिर जो लोग सोशल मीडिया पर ये पूछते हैं कि पुरुष दिवस कब होता है या फिर यह शिकायत करते हैं कि पुरुष दिवस भी महिला दिवस की तरह क्यों नहीं मनाया जाता है ।  उनकी बात एक हद तक सही भी है. महिला दिवस मनाने का मुख्य मुद्देश्य उन्हें सम्मान देना है और यह दिखाना है कि वह किसी भी मामले में पुरुषों से कम नहीं हैं, लेकिन पुरुष दिवस को नजरअंदाज कर देने से समानता की बात करने वाले लोगों पर एक सवालिया चिन्ह जरूर लगता है ।  इसकी वजह से कुछ हद तक पुरुषों को दुख जरूर पहुंचाता है । पुरुषों के दुःख को पहचान कर ही राज्यसभा में भाजपा सांसद सोनल मानसिंह ने कहा कि मैं मांग करती हूं कि अंतरराष्ट्रीय पुरुष दिवस भी मनाया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि जिस तरह से अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जा रहा है ऐसे ही अंतर्राष्ट्रीय पुरुष दिवस भी मनाया जाए। 

अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर कहीं महिलाओं को तोहफे दिए जाते हैं तो कहीं महिलाओं को इस दिन की ढेर सारी शुभकामनाएं दी जाती हैं. लेकिन पुरुषों का क्या? क्या महिला दिवस की तरह कोई पुरुष दिवस भी होता है? जी हां, बिल्कुल होता है और लोग इसे मनाते भी हैं  ।  फर्क सिर्फ इतना है कि इसकी लोकप्रियता महिला दिवस जितनी नहीं है  । 

अंतरराष्ट्रीय पुरुष दिवस हर साल 19 नवंबर को मनाया जाता है. पुरुष दिवस का फोकस पुरुषों और बच्चों के स्वास्थ्य, लैंगिक समानता और आदर्श पुरुषों के बारे में दुनिया को बताना होता है. पुरुष दिवस 1960 के दशक से ही मनाया जा रहा है. इस दिन पुरुषों की उपलब्धियों का उत्सव मनाया जाता है और साथ ही समाज, परिवार, विवाह और बच्चों की देखभाल में पुरुषों के सहयोग पर भी बात होती है. 19 नवंबर 2018 को मनाए जाने वाले पुरुष दिवस का थीम Positive Male Role Models है. अतंरराष्ट्रीय पुरुष दिवस की लेकर एक आधिकारिक वेबसाइट भी है और फेसबुक पेज भी बना हुआ है. इनके जरिए डोनेशन ली जाती है । भले  ही आपको ऐसा लगे कि भारत पुरुष प्रधान देश है और यहां महिलाओं को ध्यान में रखते हुए महिला दिवस जैसे उत्सव मनाने जरूरी हैं ।   लेकिन यकीन मानिए, पुरुष भी कम बेचारे नहीं हैं. पुरुषों की भी अपनी ऐसी समस्याएं हैं, जिनसे उन्हें जूझना पड़ता है ।  यकीन न हो तो कुछ आंकड़े आपका ध्यान इस ओर खींचने में मदद कर सकते हैं. 76 फीसदी आत्महत्याएं पुरुष करते हैं, 85 फीसदी बेघर लोग पुरुष हैं, 70 फीसदी हत्याएं पुरुषों की हुई हैं, घरेलू हिंसा के शिकारों में भी 40 फीसदी पुरुष हैं ।  तो अगर महिला और पुरुष को समानता के पैमाने पर रखना है तो महिला दिवस के साथ-साथ पुरुष दिवस भी  उसी स्तर मनाना जरूरी है । इस समय तो केवल  पुरुष दिवस को  खाना पूर्ति के लिए भी मनाया जाता है । घरेलू हिंसा या फिर महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा को लेकर न सिर्फ अक्सर बातें होती हैं बल्कि कठोर कानून भी बने हैं, बावजूद इसके इनमें कोई कमी नहीं दिखती  ।  लेकिन इस घरेलू हिंसा का एक पक्ष यह भी है कि घरेलू हिंसा के पीड़ितों में महिलाएं ही नहीं बल्कि पुरुष भी हैं लेकिन उनकी आवाज इतनी धीमी है कि वह न तो समाज को और न ही कानून को सुनाई पड़ती है ।  पारिवारिक मसलों को सुलझाने के मकसद से चलाए जा रहे तमाम परामर्श केंद्रों की मानें तो घरेलू हिंसा से संबंधित शिकायतों में करीब चालीस फीसद शिकायतें पुरुषों से संबंधित होती हैं यानी इनमें पुरुष घरेलू हिंसा का शिकार होते हैं और उत्पीड़न करने वाली महिलाएं होती हैं । 

भारत में अभी तक ऐसा कोई सरकारी अध्ययन या सर्वेक्षण नहीं हुआ है जिससे इस बात का पता लग सके कि घरेलू हिंसा में शिकार पुरुषों की तादाद कितनी है लेकिन कुछ गैर सरकारी संस्थान इस दिशा में जरूर काम कर रहे हैं ।  ‘सेव इंडियन फैमिली फाउंडेशन‘ और ‘माई नेशन‘ नाम की गैर सरकारी संस्थाओं के एक अध्ययन में यह बात सामने आई है कि भारत में नब्बे फीसद से ज्यादा पति तीन साल की रिलेशनशिप में कम से कम एक बार घरेलू हिंसा का सामना कर चुके होते हैं ।  इस रिपोर्ट में यह भी गया है पुरुषों ने जब इस तरह की शिकायतें पुलिस में या फिर किसी अन्य प्लेटफॉर्म पर करनी चाही तो लोगों ने इस पर विश्वास नहीं किया और शिकायत करने वाले पुरुषों को हंसी का पात्र बना दिया गया । लखनऊ में पीड़ित पुरुषों की समस्याओं पर काम करने वाली एक संस्था के संचालक देवेश कुमार बताते हैं कि लॉकडाउन के दौरान ऐसी समस्याओं के बारे में और ज्यादा जानकारी मिली है क्योंकि इस दौरान ज्यादातर पति-पत्नी साथ रहे हैं ।  देवेश कुमार बताते हैं, “लोग कई तरह की समस्याएं लेकर आते हैं ।  मसलन, एक युवक इस बात से परेशान था कि उसकी पत्नी के किसी अन्य व्यक्ति से अवैध संबंध थे. मना करने के बावजूद संबंध जारी रहे  ।  लॉकडाउन के दौरान ही उसे ये बातें पता चलीं  ।  दोनों में विवाद हुआ और लड़की के घर वालों ने युवक को यह कहते हुए धमकाया कि यदि उसने कुछ करने की कोशिश की तो दहेज प्रताड़ना के तहत मुकदमा दर्ज करा दिया जाएगा   ”

पुरुष आयोग की मांग के समर्थन में जो तर्क दिए जाते हैं, उनमें सबसे बड़ा तर्क यह है कि महिलाओं को सुरक्षा देने के जो कानून बने हैं, उनके दुरुपयोग से पुरुषों को प्रताड़ित किया जाता रहा है । इन कानूनों में दहेज कानून यानी धारा 498-ए सबसे प्रमुख है । सुप्रीम कोर्ट में वकील दिलीप कुमार दुबे कहते हैं, “अमेरिका के जिस कानून से प्रेरित होकर यह कानून बनाया गया, वह अमेरिकी कानून जेंडर निरपेक्ष है और उसमें पुरुषों की प्रताड़ना के मामले भी देखे जाते हैं । लेकिन हमारे यहां यह एकतरफा हो गया है. जबकि दहेज प्रताड़ना से संबंधित ज्यादातर मामले खुद अदालत की निगाह में गलत पाए गए हैं ।”करीब चार साल पहले घरेलू हिंसा या उत्पीड़न के शिकार पुरुषों की मदद के लिए एक स्वयंसेवी संस्था ने ‘सिफ’ नाम का एक ऐप बनाया था जिसके जरिए ऐसे पुरुष अपनी पीड़ा दर्ज करा सकते थे । ऐसे पुरुषों को यह संस्था कानूनी मदद भी दिलाती थी । संस्था के प्रमुख अमित कुमार कहते हैं कि इस ऐप के जरिए 25 राज्यों के 50 शहरों में 50 एनजीओ से कानूनी मदद के लिए संपर्क किया जा सकता है । उनका दावा है कि हेल्पलाइन जारी होने के 50 दिन के भीतर ही उन्हें 16,000 से ज्यादा फोन कॉल्स मिली थीं । अमित बताते हैं कि अब तक कई लोगों को कानूनी मदद दिलाई जा चुकी है और कई परिवारों की काउंसिलिंग कराकर उनकी समस्या को दूर किया गया है निचोड़ यह है कि देश में अंतरराष्ट्रीय पुरुष दिवस का आयोजन भी अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के स्तर पर मने व पुरुषों को भी मीडिया अपनी बात कहने का खुल्ला मंच दे , आखिर आधी आबादी के हकदार वो भी है ।

अशोक भाटिया

स्वतंत्र पत्रकार व लेखक

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